महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 131 श्लोक 23-41

एकत्रिंशदधिकशततम (131) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: एकत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 23-41 का हिन्दी अनुवाद
  • तदनंतर शत्रुओं का दमन करने वाले पुरुषसिंह श्रीकृष्ण ने अपने इस स्वरूप को, उस दिव्य, अद्भुत एवं विचित्र ऐश्वर्य को समेट लिया। (23)
  • तत्पश्चात वे मधुसूदन ऋषियों से आज्ञा ले सात्यकि और कृतवर्मा का हाथ पकड़े सभा भवन से चल दिये। (24)
  • उनके जाते ही नारद आदि महर्षि भी अदृश्य हो गए। वह सारा कोलाहल शांत हो गया। यह सब एक अद्भुत सी घटना हुई थी। (25)
  • पुरुषसिंह श्रीकृष्ण को जाते देख राजाओं सहित समस्त कौरव भी उनके पीछे-पीछे गये, मानो देवता देवराज इंद्र का अनुसरण कर रहे हों। (26)
  • परंतु अप्रमेयस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण उस समस्त नरेशमंडल की कोई परवा न करके धूमयुक्त अग्नि की भाँति सभा भवन से बाहर निकल आये। (27)
  • बाहर आते ही शैव्य और सुग्रीव नामक घोड़ों से जुते हुए परम उज्ज्वल एवं विशाल रथ के साथ सारथी दारुक दिखाई दिया। उस रथ में बहुत सी क्षुद्रघंटिकाएँ शोभा पाती थीं। सोने की जालियों से उसकी विचित्र छटा दिखाई देती थी। वह शीघ्रगामी रथ चलते समय मेघ के समान गंभीर रव प्रकट करता था। उसके भीतर सब आवश्यक सामग्रियाँ सुंदर ढंग से सजाकर रखी गयी थीं। उसके ऊपर व्याघ्र चर्म का आवरण लगा हुआ था और रथ की रक्षा के अन्य आवश्यक प्रबंध भी किए गये थे। (28-29)
  • इसी प्रकार वृष्णिवंश के सम्मानित वीर हृदिकपुत्र महारथी कृतवर्मा भी एक दूसरे रथ पर बैठे दिखाई दिये। (30)
  • शत्रुदमन भगवान श्रीकृष्ण का रथ उपस्थित है और अब ये यहाँ से चले जाएँगे, ऐसा जानकार महाराज धृतराष्ट्र ने पुन: उनसे कहा- (31)
  • ‘शत्रुसूदन जनार्दन! पुत्रों पर मेरा बल कितना काम करता है, यह आप देख ही रहे हैं। सब कुछ आपकी आँखों के सामने है, आपसे कुछ भी छिपा नहीं है। (32)
  • ‘केशव! मैं भी चाहता हूँ कि कौरव-पांडवों में संधि हो जाये और मैं इसके लिए प्रयत्न भी करता रहता हूँ, परंतु मेरी इस अवस्था को समझकर आपको मेरे ऊपर संदेह नहीं करना चाहिए। (33)
  • ‘केशव! पांडवों के प्रति मेरा भाव पापपूर्ण नहीं है। मैंने दुर्योधन से जो हित की बात बताई है, वह आपको ज्ञात ही है। (34)
  • ‘माधव! मैं सब उपायों से शांतिस्थापन के लिए प्रयत्नशील हूँ, इस बात को ये समस्त कौरव तथा बाहर से आये हुए राजा लोग भी जानते हैं’। (35)
  • वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनंतर महाबाहु श्रीकृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र, आचार्य द्रोण, पितामह भीष्म, विदुर, बाह्लीक तथा कृपाचार्य से कहा- (36)
  • ‘कौरव सभा में जो घटना घटित हुई है, उसे आप लोगों ने प्रत्यक्ष देखा है। मूर्ख दुर्योधन किस प्रकार अशिष्ट की भाँति आज रोषपूर्वक सभा से उठ गया था। (37)
  • ‘महाराज धृतराष्ट्र भी अपने आपको असमर्थ बता रहे हैं। अत: अब मैं आप सब लोगों से आज्ञा चाहता हूँ। मैं युधिष्ठिर के पास जाऊँगा।’ (38)
  • नरश्रेष्ठ जनमेजय! तत्पश्चात रथ पर बैठकर प्रस्थान के लिए उद्यत हुए भगवान श्रीकृष्ण से पूछकर भरतवंश के महाधनुर्धर उत्कृष्ट वीर उनके पीछे कुछ दूर तक गये। (39)
  • उन वीरों के नाम इस प्रकार हैं- भीष्म, द्रोण, कृप, विदुर, धृतराष्ट्र, बाह्लीक, अश्वत्थामा, विकर्ण और महारथी युयुत्सु। (40)
  • तदनंतर किंकिणीविभूषित उस विशाल एवं उज्ज्वल रथ के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण समस्त कौरवों के देखते-देखते अपनी बुआ कुंती से मिलने के लिए गये। (41)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में विश्वरूप दर्शन विषयक एक सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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