महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 110 श्लोक 1-20

दशाधिकशततम (110) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: दशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
पश्चिम दिशा का वर्णन
  • गरुड़ कहते हैं- गालव! यह जो सामने की दिशा है, जल के स्वामी दिक्पाल राजा वरुण को सदा ही अत्यंत प्रिय है। यही उनका आश्रय और उत्पतिस्थान है। (1)
  • द्विजश्रेष्ठ! दिन के पश्चात सूर्यदेव इसी दिशा में स्वयं अपनी किरणों का विसर्जन करते हैं, इसलिए यह 'पश्चिम' के नाम से विख्यात है। (2)
  • पूर्वकाल में भगवान कश्यपदेव ने जल-जंतुओं का आधिपत्य और जल की रक्षा करने के लिए इसी दिशा में वरुण का अभिषेक किया था। (3)
  • अंधकार का नाश करने वाले चंद्रमा वरुण के निकट रहकर छ: प्रकार के सम्पूर्ण रसों का पान करके शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को इसी दिशा में नूतनता को प्राप्त होकर उदित होते हैं। (4)
  • ब्रह्मण! पूर्वकाल में वायुदेव ने अपने महान वेग से यहाँ युद्ध में दैत्यों को पराड्मुख, आबद्ध और पीड़ित किया था, जिससे वे लंबी सांस छोड़ते हुए धराशायी हो गए थे। (5)
  • इसी दिशा में अस्ताचल है, जो अपने प्रीतिपात्र सूर्यदेव को प्रतिदिन ग्रहण करता है। वहीं से पश्चिम संध्या का प्रसार होता है। (6)
  • इसी दिशा के दिन के अंत में मानो जीव-जगत की आधी आयु हर लेने के लिए रात्रि एवं निद्रा का प्राकट्य होता है। (7)
  • इसी दिशा में देवराज इन्द्र ने सोयी हुई गर्भवती दिति देवी के उदर में प्रवेश करके उसके गर्भ का उच्छेद किया था, जिससे मरुदगणों की उत्पत्ति हुई। (8)
  • इसी दिशा में हिमालय का मूलभाग सदा मंदराचल तक फैलकर उसका स्पर्श करता है। सहसत्रों वर्षों में भी इसका अंत पाना असंभव है। (9)
  • इसी दिशा में सुवर्णमय पर्वत मंदराचल तथा स्वर्णमय कमलों से सुशोभित क्षीरसागर के तट पर पहुँचकर सुरभिदेवी अपने दूध का निर्झर बहाती है। (10)
  • पश्चिम दिशा में ही समुद्र के भीतर सूर्य के समान तेजस्वी उस राहू का कबंध (धड़) दिखाई देता है, जो सूर्य और चंद्रमा को मार डालने की इच्छा रखता है। (11)
  • इसी दिशा में पिंड्गलवर्ण के केशों से सुशोभित, अप्रमेय प्रभावशाली एवं अदृश्यमूर्ति मुनिवर सुवर्णशिरा सामगान करते हैं। उनके इस गीत की विपुल ध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है। (12)
  • इसी दिशा में हरिमेधा मुनि की कुमारी कन्या ध्वजवती निवास करती है, जो सूर्यदेव की 'ठहरो' 'ठहरो' इस आज्ञा से आकाश में स्थित है। (13)
  • गालव! वायु, अग्नि, जल और आकाश- ये सब इस दिशा में रात्रि और दिन के दुःखदायी स्पर्श का परित्याग करते हैं अर्थात यहाँ इनका स्पर्श सदा सुखद ही होता है। (14)
  • इसी दिशा से सूर्यदेव तिरछी गति से चक्कर लगाना आरंभ करते हैं। यहीं सम्पूर्ण ज्योतियाँ सूर्यमण्डल में प्रवेश करती हैं। (15)
  • अभिजीत सहित अट्ठाईस नक्षत्रों में प्रत्येक अट्ठाईसवें दिन सूर्य के साथ विचरण करके अमावस्या के बाद फिर सूर्यमण्डल से पृथक हो जाता है। (16)
  • इसी दिशा से उन अधिकांश नदियों का प्राकट्य हुआ है, जिनके जल से समुद्र की पूर्ति होती रहती है। यहीं के वरुनालय में त्रिभुवन के लिए उपयोगी जलराशि संचित है।(17)
  • यहाँ नागराज अनंत का निवास तथा आदि-अंत से रहित भगवान विष्णु का सर्वोत्कृष्ट स्थान है। (18)
  • इसी दिशा में अग्निदेव के सखा वायुदेव का भवन तथा मरीचिनंदन महर्षि कश्यप का आश्रम है। (19)
  • द्विजश्रेष्ठ गालव! इस प्रकार मैंने तुम्हें संक्षेप से पश्चिम का मार्ग बताया है। अब बताओ, तुम्हारा क्या विचार है? हम दोनों किस दिशा की ओर चलें? (20)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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