महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 45 श्लोक 1-16

पंचचत्वारिंश (45) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: पंचचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


देहरूपी कालचक्र का तथा गृहस्थ और ब्रह्मण के धर्म का कथन

ब्रह्मा जी ने कहा- महर्षियों! मन के समान वेग वाला (देहरूपी) मनोरम कालचक्र निरन्तर चल रहा है। यह महत्तत्त्व से लेकर स्थूलभूतों तक चौबीस तत्त्वों से बना हुआ है। इसकी गति कहीं भी नहीं रुकती। यह संसार बन्धन का अनिवार्य कारण है। बुढ़ापा और शोक इसे घेरे हुए हैं। यह रोग और दुर्व्यसनों की उत्पत्ति का स्थान है। यह देश और काल के अनुसार विचरण करता रहता है। बुद्धि इस काल चक्र का सार, मन खम्भा और इन्द्रिय समुदाय बन्धन हैं। पंचमहाभूत इसका तना है। अज्ञान ही इसका आवरण है। श्रम तथा व्यायाम इसके शब्द हैं। रात और दिन इस चक्र का संचालन करते हैं। सर्दी और गर्मी इसका घेरा है। सुख और दु:ख इसकी सन्धियाँ (जोड़) हैं। भूख और प्यास इसके कीलक तथा धूप और छाया इसकी रेखा हैं। आँखों के खोलने और मीचने से इसकी व्याकुलता (चंचलता) प्रकट होती है। घोर मोह रूपी जल (शोकाश्रु) से यह व्याप्त रहता है। यह सदा ही गतिशील और अचेतन है। मास और पक्ष आदि के द्वारा इसकी आयु की गणना की जाती है। यह कभी भी एक सी अवस्था में नहीं रहता।

ऊपर-नीचे और मध्यवर्ती लोकों में सदा सक्कर लगाता रहता है। तमोगुण के वश में होने पर इसकी पाप पक में प्रवृति होती है और रजोगुण का वेग इसे भिन्न-भिन्न कर्मों में लगाया करता है। यह महान दर्प से उद्दीप्त रहता है। तीनों गुणों के अनुसार इसकी प्रवृत्ति देखी जाती है। मानसिक चिन्ता ही इस चक्र की बन्धन पट्टिका है। यह सदा शोक और मृत्यु के वशीभूत रहने वाला तथा क्रिया और कारण से युक्त है। आसक्ति ही उसका दीर्घ विस्तार (लंबाई-चौड़ाई) है। लोभ और तृष्णा ही इस चक्र को ऊँचे-नीचे स्थानों में गिराने के हेतु हैं। अद्भुत अज्ञान (माया) इसकी उत्पत्ति का कारण है। भय और मोह से सब ओर से घेरे हुए हैं। यह प्राणियों को मोह में डालने वाला, आनन्द और प्रीति के लिये विचरने वाला तथा काम और क्रोध का संग्रह करने वाला है।

यह राग द्वेषादि द्वन्द्वों से युक्त जड़ देहरूपी कालचक्र ही देवताओं सहित सम्पूर्ण जगत की सृष्टि और संहार का कारण है। तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति का भी यही साधन है। जो मनुष्य इस देहमय कालचक्र की प्रवृत्ति और निवृत्ति को सदा अच्छी तरह जानता है, वह कभी मोह में नहीं पड़ता। वह सम्पूर्ण वासनाओं, सब प्रकार के द्वन्द्वों और समस्त पापों से मुक्त होकर परम गति को प्राप्त होता है। ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास- ये चार आश्रम शास्त्रों में बताये गये हैं। गृहस्थ आश्रम ही इन सबका मूल है। इस संसार में जो कोई भी विधि-निषेध रूप शास्त्र कहा गया है, उसमें पारंगत विद्वान होना गृहस्थ द्विजों के लिये उत्तम बात है। इसी से सनातन यश की प्राप्ति होती है। पहले सब प्रकार के संस्कारों से सम्पन्न होकर वेदोक्त विधि से अध्ययन करते हुए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिये। तत्पश्चात तत्त्व वेत्ता को उचित है कि वह समावर्तन संस्कार करके उत्तम गुणों से युक्त कुल में विवाह करें। अपनी ही स्त्री पर प्रेम रखना, सदा सत्पुरुषों के आचार का पालन करना और जितेन्द्रिय होना गृहस्थ के लिये परम आवश्यक है। इस आश्रम में उसे श्रद्धापूर्वक पंचमहायज्ञों के द्वारा देवता आदि का यजन करना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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