महाभारत आदि पर्व अध्याय 228 श्लोक 18-34

अष्टविंशत्यधिकद्विशततम (228) अध्‍याय: आदि पर्व (मयदर्शन पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: अष्टविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद


भारत! महाभाग मन्दपाल मुनि के लपिता के पास चले जाने पर संतान के प्रति स्नेहयुक्त जरिता को बड़ी चिन्ता हुई। अंडे में स्थित उन मुनियों को यद्यपि मन्दपाल ने त्याग दिया था, तो भी वे त्याग के योग्य नहीं थे। अतः पुत्र शोक से पीड़ित हुई जरिता ने खाण्डववन में अपने पुत्रों को नहीं छोड़ा। वह स्नेह से विह्वल होकर अपनी वृत्ति द्वारा उन नवजात शिशुओं का भरण-पोषण करती रही। उधर वन में लपिता के साथ विचरते हुए मन्दपाल मुनि ने अग्निदेव को खाण्डववन का दाह करने के लिये आते देखा। अग्निदेव के संकल्प को जानकर और पुत्रों की बाल्यावस्था का विचार करके ब्रह्मर्षि मन्दपाल भयभीत होकर महातेजस्वी लोकपाल अग्नि से अपने पुत्रों की रक्षा के लिये निवेदन करते हुए (ईश्वर की भाँति) उनकी स्तुति करने लगे।

मन्दपाल ने कहा- अग्निदेव! आप सब लोकों के मुख हैं, आप ही देवताओं को हविष्य पहुँचाते हैं। पावक! आप समस्त प्राणियों के अन्तस्तल में गूढ़ रूप से विचरते हैं। विद्वान् पुरुष आपको एक (अद्वितिय ब्रह्मरूप) बताते हैं। फिर दिव्य, भौम और जठरानल रूप से आपके विविध स्वरूप् का प्रतिपादन करते हैं। आपको ही पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा और यजमान- इन आठ मूर्तियों में विभक्त करके ज्ञानी पुरुषों ने आपको यज्ञवाहन बनाया है। महर्षि कहते हैं कि इस सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि आपने ही की है। हुताशन! आपके बिना सम्पूर्ण जगत् तत्काल नष्ट हो जायेगा। ब्रह्मण लोग आपको नमस्कार करके अपनी पत्नियों और पुत्रों के साथ कर्मानुसार प्राप्त की हुई सनातन गति को प्राप्त होते हैं। अग्ने! आकाश में विद्युत् के साथ मेघों की जो घटा घिर आती है, उसे भी आपका ही स्वरूप कहते हैं। प्रलयकाल में आपसे ही भयंकर ज्वालाऐं निकलकर सम्पूर्ण प्राणियों को भस्म कर डालती हैं। महान् तेजस्वी जातवेदा! आपसे ही यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ है। तथा आपके ही द्वारा कर्मों का विधान किया गया है और सम्पूर्ण चराचर प्राणियों की उत्पत्ति भी आपसे ही हुई है। आपसे ही पूर्वकाल में जल की सृष्टि हुई है और आप में ही सम्पूर्ण जगत् प्रतिष्ठित है। आप ही में हव्य और कव्य यथावत् प्रतिष्ठित हैं। देव! आप ही दग्ध करने वाले अग्नि, धारण-पोषण करने वाले धाता और बुद्धि के स्वामी बृहस्पति हैं। आप ही युगल अश्विनीकुमार, मित्र (सूर्य), चन्द्रमा और वायु हैं।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! मन्दपाल मुनि के इस प्रकार स्तुति करने पर अग्निदेव उन अमित तेजस्वी महर्षि पर प्रसन्न हुए और प्रसन्नचित्त होकर उनसे बोले- ‘मैं आपके किस अभीष्ट कार्य की सिद्धि करूँ?’ तब मन्दपाल ने हाथ जोड़कर हव्यवाहन अग्नि से कह- ‘भगवान! आप खाण्डववन का दाह करते समय मेरे पुत्रों को बचा दें’। ‘बहुत अच्छा’ कहकर भगवान् हव्यवाहन ने वैसा करने की प्रतिज्ञा की और उस समय खाण्डववन को जलाने के लिये वे प्रज्वलित हो उठे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिप र्व के अन्तर्गत मयदर्शन पर्व में शांर्गकोपाख्यान विषयक दो सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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