षण्णवत्यधिकशततम (196) अध्याय: आदि पर्व (वैवाहिक पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: षण्णवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 25-36 का हिन्दी अनुवाद
व्यास जी कहते हैं- राजन्! पूर्ववर्ती इन्द्रों का यह वचन सुनकर वज्रधारी इन्द्र ने पुन: देवश्रेष्ठ महादेव जी से इस प्रकार कहा- ‘भगवन्! मैं अपने वीर्य से अपने ही अंशभूत पुरुष को देवताओं के कार्य के लिये समर्पित करुंगा, जो इन चारों के साथ पांचवां होगा। उसे मैं स्वयं ही उत्पन्न करुंगा। विश्वभुक, भूतधामा, प्रतापी इन्द्र शिवि, चौथे शान्ति और पांचवें तेजस्वी- ये ही उन पांचों के नाम हैं। उग्र धनुष धारण करने वाले भगवान् रुद्र ने उन सबको उनकी अभीष्ट कामना पूर्ण होने का वरदान दिया, जिसे वे अपने साधु स्वभाव के कारण भगवान् के सामने प्रकट कर चुके थे। साथ ही उस लोककमनीया युवती स्त्री को, जो स्वर्ग लोक की लक्ष्मी थी, मनुष्य लोक में उनकी पत्नी निश्चित की। तदनन्तर उन्हीं के साथ महादेव जी अनन्त, अप्रमेय, अव्यक्त, अजन्मा, पुराणपुरुष, सनातन, विश्वरुप एवं अनन्त मूर्ति भगवान् नारायण के पास गये। उन्होंने भी उन्हीं सब बातों के लिये आज्ञा दी। तत्पश्चात् वे सब लोग पृथ्वी पर प्रकट हुए। उस समय भगवान् नारायण ने अपने मस्तक से दो केश निकाले, जिनमें एक श्वेत था और दूसरा श्याम। वे दोनों केश यदुवंश की दो स्त्रियों देवकी तथा रोहिणी के भीतर प्रविष्ट हुए। उनमें से रोहिणी के बलदेव प्रकट हुए, जो भगवान् नारायण का श्वेत केश थे; दूसरा केश, जिसे श्याम वर्ण का बताया गया है, वही देवकी के गर्भ से भगवान् श्रीकृष्ण के रुप में प्रकट हुआ उत्तरवर्ती हिमालय की कन्दरा में पहले जो इन्द्र स्वरुप पुरुष बंदी बनाकर रखे गये थे, वे ही ये चारों पराक्रमी पाण्डव यहाँ विद्यमान हैं और साक्षात् इन्द्र का अंशभूत जो पांचवां पुरुष प्रकट होने वाला था, वही पाण्डुकुमार सव्यसाची अर्जुन है। राजन्! इस प्रकार ये पाण्डव प्रकट हुए हैं, जो पहले इन्द्र रह चुके हैं। यह दिव्यरुपा द्रौपदी वही स्वर्गलोक की लक्ष्मी है, जो पहले से ही इनकी पत्नी नियत हो चुकी है। महाराज! यदि इस कार्य में देवताओं का सहयोग न होता तो तुम्हारे इस यज्ञ कर्म द्वारा यज्ञवेदी की भूमि से ऐसी दिव्य नारी कैसे प्रकट हो सकती थी, जिसका रुप सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाश बिखेर रहा है और जिसकी सुगन्ध एक कोस तक फैलती रहती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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