सप्ताधिकशततम (107) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: सप्ताधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! तब उन मुनिश्रेष्ठ ने उन तपस्वी मुनियों से कहा- ‘मैं किस पर दोष लागाऊं; दूसरे किसी ने मेरा अपराध नहीं किया है’। महाराज! रक्षकों ने बहुत दिनों तक उन्हें शूल पर बैठे देख राजा के पास जा सब समाचार ज्यों-का-त्यों निवेदन किया। उनकी बात सुनकर मन्त्रियों के साथ परामर्श करके राजा ने शूली पर बैठे हुए उन मुनिश्रेष्ठ को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया। राजा ने कहा- मुनिवर! मैंने मोह अथवा अज्ञान वश जो अपराध किया है, उसके लिये आप मुझ पर क्रोध न करें। मैं आपसे प्रसन्न होने के लिये प्रार्थना करता हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा के यों कहने पर मुनि उन पर प्रसन्न हो गये। राजा ने उन्हें प्रसन्न जानकर शूली से उतार दिया। नीचे उतारकर उन्होंने शूल के अग्रभाग के सहारे उनके शरीर के भीतर से शूल को निकालने के लिये खींचा। खींचकर निकालने में असफल होने पर उन्होंने उस शूल को मूलभाग में काट दिया। तब से वे मुनि शूलाग्रभाग को अपने शरीर के भीतर लिये हुए ही विचरने लगे। उस अत्यन्त घोर तपस्या के द्वारा महर्षि ने ऐसे पुण्यलोकों पर विजय पायी, जो दूसरों के लिये दुर्लभ हैं। अणी कहते हैं शूल के अग्रभाग को, उससे युक्त होने के कारण वे मुनि तभी से सभी लोकों में ‘अणी-माण्डव्य’ कहलाने लगे। एक समय परमात्मत्व के ज्ञाता विप्रवर माण्डव्य ने धर्मराज के भवन में जाकर उन्हें दिव्य आसन पर बैठे देखा। उस समय उन शक्तिशाली महर्षि ने उन्हें उलाहना देते हुए पूछा- मैंने अनजान में कौन-सा ऐसा पाप किया था, जिसके फल का भोग मुझे इस रुप में प्राप्त हुआ? मुझे शीघ्र इसका रहस्या बताओ। फिर मेरी तपस्या का बल देखो’। धर्मराज बोले- तपोधन! तुमने फतिंगों के पुच्छ-भाग में सींक घुसेड़ दी थी। उसी कर्म का यह फल तुम्हें प्राप्त हुआ है। विप्रर्षे! जैसे थोड़ा-सा भी किया हुआ दान कई गुना फल देने वाला होता है, वैसे ही अधर्म भी बहुत दु:खरुपी फल देने वाला होता है। अणीमाण्डव्य ने पूछा- अच्छा, तो ठीक-ठीक बताओ, मैंने किस समय, किस आयु में वह पाप किया था? धर्मराज ने उत्तर दिया- ‘बाल्यावस्था में तुम्हारे द्वारा यह पाप हुआ था'। अणीमाण्डव्य ने कहा- धर्म-शास्त्र के अनुसार जन्म से लेकर बारह वर्ष की आयु तक बालक जो कुछ भी करेगा, उसमें अधर्म नहीं होगा; क्योंकि उस समय तक बालक को धर्म-शास्त्र के आदेश का ज्ञान नहीं हो सकेगा। धर्मराज! तुमने थोड़े-से अपराध के लिये मुझे बड़ा दण्ड दिया है। ब्राह्मण का वध सम्पूर्ण प्राणियों के वध से भी अधिक भयंकर है। अत: धर्म! तुम मनुष्य होकर शूद्रयोनि में जन्म लोगे। आज से संसार में मैं धर्म के फल को प्रकट करने वाली मर्यादा स्थापित करता हूँ। चौदह वर्ष की उम्र तक किसी को पाप नहीं लगेगा। उससे अधिक की आयु में पाप करने वालों को ही दोष लगेगा। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! इसी अपराध के कारण महात्मा माण्डव्य के शाप से साक्षात् धर्म ही विदुर रूप में शूद्रयोनि में उत्पन्न हुए। वे धर्म-शास्त्र एवं अर्थशास्त्र के पण्डित, लोभ और क्रोध से रहित, दीर्घदर्शी, शान्तिपरायण तथा कौरवों के हित में तत्पर रहने वाले थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज