महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 95 श्लोक 1-16

पन्चनवतितम (95) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: पन्चनवतितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


छत्र और उपानह की उत्‍पत्ति एवं दान विषयक युधिष्ठिर का प्रश्‍न तथा सूर्य की प्रचण्‍ड धूप से रेणुका का मस्‍तक और पैरों के संतप्‍त होने पर जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना और विप्ररूपधारी सूर्य से वार्तालाप

युधिष्ठिर ने पूछा- भरतश्रेष्ठ! श्राद्ध कर्मों में जिनका दान दिया जाता है, उन छत्र और उपानहों के दान की प्रथा किसने चलायी है? इनकी उत्पत्ति कैसे हुई और किसलिये इनका दान किया जाता है? केवल श्राद्ध कर्म में ही नहीं, अनेक पुण्य के अवसरों पर भी इनका दान होता है। बहुत-से निमित्त उपस्थित होने पर पुण्य के उद्देश्‍य से इन वस्तुओं के दान की प्रथा देखी जाती है। अतः राजन! मैं इस विषय को विस्तार के साथ यथावत रूप से सुनना चाहता हूँ।

भीष्म जी ने कहा- राजन! छाते और जूते की उत्पत्ति की वार्ता मैं विस्तार के साथ बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनो। संसार में किस प्रकार इनके दान का आरम्भ हुआ और कैसे उस दान का प्रचार हुआ, यह सब श्रवण करो। नरेश्‍वर! इन दोनों वस्तुओं का दान किस तरह अक्षय होता है तथा ये किस प्रकार पुण्य की प्राप्ति कराने वाली मानी गयी हैं। इन सब बातों का मैं पूर्ण रूप से वर्णन करूँगा। प्रभो! इस विषय में महर्षि जमदग्नि और महात्मा भगवान सूर्य के संवाद का वर्णन किया जाता है।

पूर्वकाल की बात है, एक दिन भृगुनन्दन भगवान जमदग्नि जी धनुष चलाने की क्रीड़ा कर रहे थे। धर्म से च्युत न होने वाले युधिष्ठिर! वे बारंबार धनुष पर बाण रखकर उन्हें चलाते और उन चलाये हुए सम्पूर्ण तेजस्वी बाणों को उनकी पत्नी रेणुका ला-लाकर दिया करती थीं। धनुष की प्रत्यंचा की टंकार ध्वनि ओर बाण के छूटने की सनसनाहट से जमदग्नि मुनि बहुत प्रसन्न होते थे। अतः वे बार-बार बाण चलाते और रेणुका उन्हें दूर से उठा-उठाकर लाया करती थीं।

जनेश्‍वर! इस प्रकार बाण चलाने की क्रीड़ा करते-करते ज्येष्ठ मास के सूर्य के दिन के मध्य भाग में आ पहुँचे। विप्रवर जमदग्नि ने पुनः बाण छोड़कर रेणुका से कहा- 'सुभ्रु! विशाल लोचने! जाओ, मेरे धनुष से छूटे हुए इन बाणों को ल आओ, जिससे मैं पुनः इन सबको धनुष पर रखकर छोड़ूँ।'

मानिनी रेणुका वृक्षों के बीच से होकर उनकी छाया का आश्रय ले जाती हुई बीच-बीच में ठहर जाती थीं; क्योंकि उनके सिर और पैर तप गये थे। कजरारे नेत्रों वाली वह कल्याणमयी देवी एक जगह दो ही घड़ी ठहरकर पति के शाप के भय से पुनः उन बाणों को लाने के लिये चल दीं। उन बाणों का लेकर सुन्दर अंगों वाली यशस्विनी रेणुका जब लौटीं; उस समय वह बहुत खिन्न हो गयी थीं। पैरों के जलने से जो दुःख होता था, उसको किसी तरह सहती और पति के भय से थर-थर कांपती हुई उनके पास आयीं। उस समय महर्षि कुपित होकर सुन्दर मुख वाली अपनी पत्नी से बारंबार पूछने लगे- 'रेणुके! तुम्हारे आने में इतनी देर क्यों हुई?'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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