महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 98 श्लोक 1-19

अष्टनवतितम (98) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्टनवतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


तपस्‍वी सुवर्ण और मनु का संवाद- पुष्‍प, धूप, दीप और उपहार के दान का माहात्‍मय

युधिष्ठिर ने पूछा- भरतश्रेष्ठ! यह जो दीपदान नामक कर्म है, यह कैसे किया जाता है? इसकी उत्पत्ति कैसे हुई? अथवा इसका फल क्या है? यह मुझे बताइये।

भीष्म जी ने कहा- भारत! इस विषय में प्रजापति मनु और सुवर्ण के संवादरूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। भरतनन्दन! सुवर्ण नाम से प्रसिद्ध एक तपस्वी ब्राह्मण थे। उनके शरीर की कान्ति सुवर्ण के समान थी। इसीलिये वे सुवर्ण नाम से विख्यात हुए थे। वे उत्तम कुल, शील और गुण से सम्पन्न थे। स्वाध्याय में भी उनकी बड़ी ख्याति थी। वे अपने गुणों द्वारा उत्तम कुल में उत्पन्न हुए बहुत-से श्रेष्ठ पुरुषों की अपेक्षा आगे बढे़ हुए थे।

एक दिन उन ब्राह्मण देवता ने प्रजापति मनु को देखा। देखकर वे उनके पास चले गये। फिर तो वे दोनों एक-दूसरे से कुशल-समाचार पूछने लगे। तदनन्तर वे दोनों सत्यसंकल्प महात्मा सुवर्णमय पर्वत मेरु के एक रमणीय शिलापृष्ठ पर एक साथ बैठ गये। वहाँ वे दोनों ब्रह्मर्षिंयों, देवताओं, दैत्यों तथा प्राचीन महात्माओं के सम्बन्ध में नाना प्रकार की कथा-वार्ता करने लगे। उस समय सुवर्ण ने स्वायम्भुव मनु से कहा- ‘प्रजापते! मैं एक प्रश्‍न करता हूँ, आप समस्त प्राणियों के हित के लिये मुझे उसका उत्तर दीजिये। फूलों से जो देवताओं की पूजा की जाती है, यह क्या है? इसका प्रचलन कैसे हुआ है? इसका फल क्या है और इसका उपयोग क्या है? यह सब मुझे बताइये।’

मनु जी ने कहा- मुने! इस विषय में विज्ञजन शुक्राचार्य और बलि, इन दोनों महात्माओं के संवादरूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। पहले की बात है, विरोचन कुमार बलि तीनों लोकों का शासन करते थे। उन दिनों भृगृकुलभूषण शुक्र शीघ्रतापूर्वक उनके पास आये। पर्याप्त दक्षिणा देने वाले असुरराज बलि ने भृगुपुत्र शुक्राचार्य को अर्घ्य आदि देकर उनकी विधिवत पूजा की और जब वे आसन पर बैठ गये, तब बलि भी अपने सिंहासन पर आसीन हुए। वहाँ उन दोनों में यही बातचीत हुई, जिसे तुमने प्रस्तुत किया है। देवताओं को फूल, धूप और दीप देने से क्या फल मिलता है, यही उनकी वार्ता का विषय था। उस समय दैत्यराज बलि ने कविवर शुक्र के सामने यह उत्तम प्रश्‍न उपस्थित किया।

बलि ने पूछा- 'ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ! द्विजशिरोमणे! फूल, धूप और दीपदान करने का क्या फल है? यह बताने की कृपा करें।'

शुक्राचार्य ने कहा- 'राजन! पहले तपस्या की उत्पत्ति हुई है, तदनन्तर धर्म की। इसी बीच में लता और औषधियों का प्रादुर्भाव हुआ है। इस भूतल पर अनेक प्रकार की सोमलता प्रकट हुई। अमृत, विष तथा दूसरी-दूसरी जाति के तृणों का प्रादुर्भाव हुआ। अमृत वह है, जिसे देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है। जो तत्काल तृप्ति प्रदान करता है और विष वह है, जो अपनी गन्ध से चित्त में सर्वथा तीव्र ग्लानि पैदा करता है। अमृत को मंगलकारी जानो ओर विष महान अमंगल करने वाला है। जितनी औषधियाँ हैं, वे सब-की-सब अमृत मानी गयी हैं और विष अग्निजनित तेज है।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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