महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 63 श्लोक 1-18

त्रिषष्टितम (63) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रिषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


अन्नदान का विशेष माहात्‍म्‍य

युधिष्ठिर ने पूछा- भरतश्रेष्ठ! जिस राजा को दान करने की इच्छा हो, वह इस लोक में गुणवान ब्राह्मणों को किन-किन वस्तुओं का दान करे? किस वस्तु के देने से ब्राह्मण तुरन्त प्रसन्न हो जाते हैं? और प्रसन्न होकर क्या देते हैं? महावाहो! अब मुझे दानजनित महान पुण्य का फल बताइये। राजन! इहलोक और परलोक में कौन-सा दान विशेष फल देने वाला होता है? यह मैं आपके मुंह से सुनना चाहता हूँ। आप इस विषय का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये।

भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! यही बात मैंने पहले एक बार देवर्षी नारद जी से पूछी थी। उस समय उन्होंने मुझसे जो कुछ कहा था, वही तुम्हें बता रहा हूँ सुनो।

नारद जी ने कहा- देवता और ऋषि अन्न की ही प्रशंसा करते हैं, अन्न से ही लोकयात्रा का निर्वाह होता है। उसी से बुद्धि को स्फूर्ति प्राप्त होती है तथा उस अन्न में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है। अन्न के समान न कोई दान था और न होगा। इसलिये मनुष्य अधिकतर अन्न का ही दान करना चाहते हैं। प्रभो! संसार में अन्न ही शरीर के बल को बढ़ाने वाला है। अन्न के ही आधार पर प्राण टिके हुए हैं और इस सम्पूर्ण जगत को अन्न ने ही धारण कर रखा है। इस जगत में गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा भिक्षा मांगने वाले भी अन्न से ही जीते हैं। अन्न से ही सबके प्राणों की रक्षा होती है। इस बात का सबको प्रत्यक्ष अनुभव है, इसमें संशय नहीं है। अतः अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले मनुष्य को चाहिये कि वह अन्न के लिये दु:खी, बाल-बच्चों वाले, महामनस्वी ब्राह्मण को और भिक्षा मांगने वाले को भी अन्न दान करे। जो याचना करने वाले सुपात्र ब्राह्मण को अन्न दान देता है, वह परलोक में अपने लिये एक अच्छी निधि (खजाना) बना लेता है। रास्ते का थका-माँदा बूढ़ा राहगीर यदि घर पर आ जाये तो अपना कल्याण चाहने वाले गृहस्थ को उस आदरणीय अतिथि का आदर करना चाहिये।

राजन! जो पुरुष मन में उठे हुए क्रोध को दबाकर और ईर्ष्‍या को त्यागकर अच्छे शील-स्वभाव का परिचय देता हुआ अन्नदान करता है, वह इहलोक और परलोक में भी सुख पाता है। अपने घर पर कोई भी आ जाये तो उसका न तो अपमान करना चाहिये और न उसे ताड़ना ही देनी चाहिये; क्योंकि चाण्डाल अथवा कुत्ते को भी दिया हुआ अन्नदान कभी नष्ट नहीं होता (व्यर्थ नहीं जाता)। जो मनुष्य कष्ट में पड़े हुए अपरिचित राही को प्रसन्नतापूर्वक अन्न देता है, उसे महान धन की प्राप्ति होती है। नरेश्‍वर! जो देवताओं, पितरों, ऋषियों, ब्राह्मणों और अतिथियों को अन्न देकर संतुष्ट करता है, उसके पुण्य का फल महान है। जो महान पाप करके भी याचक मनुष्य को, उसमें भी विशेषतः ब्राह्मण को अन्न देता है, वह अपने पाप के कारण मोह में नहीं पड़ता है। ब्राह्मण को अन्न का दान दिया जाये तो अक्षय फल प्राप्त होता है और शूद्र को भी देने से महान फल प्राप्त होता है; क्योंकि अन्न का दान शूद्र को दिया जाये या ब्राह्मण को, उसका विशेष फल होता है। यदि ब्राह्मण अन्न की याचना करे तो उससे गोत्र, शाखा, वेदाध्ययन और निवासस्थान आदि का परिचय न पूछें; तुरंत ही उसकी सेवा में अन्न उपस्थित कर दें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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