महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 159 श्लोक 1-17

एकोनषष्ट्यधिकशततम (159) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: एकोनषष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताते हुए दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना और यह सारा प्रसंग युधिष्ठिर को सुनाना

युधिष्ठिर! ने पूछा- मधुसूदन! ब्राह्मण की पूजा करने से क्या फल मिलता है? इसका आप ही वर्णन कीजिये; क्योंकि आप इस विषय को अच्छी तरह जानते हैं और मेरे पितामह भी आपको इस विषय का ज्ञाता मानते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- कुरुकुलतिलक भरतभूषण नरेश! मैं ब्राह्मणों के गुणों का यथार्थ रूप से वर्णन करता हूँ, आप ध्यान देकर सुनिये।

कुरुनन्दन! पहले की बात है, एक दिन ब्राह्मणों ने मेरे पुत्र प्रद्युम्न को कुपित कर दिया। उस समय मैं द्वारका में ही था। प्रद्युम्न ने मुझसे आकर पूछा- ‘मधुसूदन! ब्राह्मणों की पूजा करने से क्या फल होता है? इहलोक और परलोक में वे क्यों ईश्वर तुल्य माने जाते हैं? मानद! सदा ब्राह्मणों की पूजा करके मनुष्य क्या फल पाता है? यह सब मुझे स्पष्ट रूप से बताइये, क्योंकि इस विषय में मुझे महान संदेह है।'

महाराज! प्रद्युम्न के ऐसा कहने पर मैंने उसको उत्तर दिया। रुक्मिणीनन्दन! ब्राह्मणों की पूजा करने से क्‍या फल मिलता है, यह मैं बता रहा हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। बेटा! ब्राह्मणों के राजा सोम (चन्‍द्रमा) हैं। अत: ये इस लोक और परलोक में भी सुख-दु:ख देने में समर्थ होते हैं। ब्राह्मणों में शान्‍त भाव की प्रधानता होती है। इस विषय में मुझे कोई विचार नहीं करना है। ब्राह्मणों की पूजा करने से आयु, कीर्ति, यश और बल की प्राप्ति होती है। समस्‍त लोक और लोकेश्‍वर ब्राह्मणों के पूजक हैं। धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि के लिये, मोक्ष की प्राप्ति के लिये और यश, लक्ष्मी तथा आरोग्‍य की उपलब्धि के लिये एवं देवता और पितरों की पूजा के समय हमें ब्राह्मणों को पूर्ण संतुष्‍ट करना चाहिये। बेटा! ऐसी दशा में मैं ब्राह्मणों का आदर कैसे नहीं करूँ? महाबाहो! मैं ईश्वर (सब कुछ करने में समर्थ) हूँ- ऐसा मानकर तुम्‍हें ब्राह्मणों के प्रति क्रोध नहीं करना चाहिये। ब्राह्मण इस लोक और परलोक में भी महान माने गये हैं। वे सब कुछ प्रत्‍यक्ष देखते हैं और यदि क्रोध में भर जायें तो इस जगत को भस्‍म कर सकते हैं। दूसरे-दूसरे लोक और लोकपालों की वे सृष्टि कर सकते हैं। अत: तेजस्‍वी पुरुष ब्राह्मणों के महत्‍व को अच्‍छी तरह जानकर भी उनके साथ सद्वर्ताव क्‍यों न करेंगे?

तात! पहले की बात है, मेरे घर में एक हरित-पिंगल वर्ण वाले ब्राह्मण ने निवास किया था। वह चिथड़े पहिनता और बेल का डंडा हाथ में लिये रहता था। उसकी मूँछें और दाढ़ियाँ बढ़ी हुई थीं। वह देखने में दुबला-पतला और ऊँचे कद का था। इस भूतल पर जो बड़े-से-बड़े मनुष्‍य हैं, उन स‍बसे वह अधिक लंबा था और दिव्‍य तथा मानव लोकों में इच्‍छानुसार विचरण करता था। वे ब्राह्मण देवता जिस समय यहाँ पधारे थे, उस समय धर्मशालाओं में और चौराहों पर यह गाथा गाते फिरते थे कि ‘कौन मुझ दुर्वासा ब्राह्मण को अपने घर में सत्‍कारपूर्वक ठहरायेगा। यदि मेरा थोड़ा-सा भी अपराध बन जाये तो मैं समस्‍त प्राणियों पर अत्‍यन्‍त कुपित हो उठता हूँ। मेरे इस भाषण को सुनकर कौन मेरे लिये ठहरने का स्‍थान देगा? जो कोई मुझे अपने घर में ठहराये, वह मुझे क्रोध न दिलाए। इस बात के लिये उसे सतत सावधान रहना होगा।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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