महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 21-42

चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद


जो ध्रुव (कूटस्‍थ), नन्‍दी (आनन्‍दमय), होता, गोप्‍ता (रक्षक), विश्‍वस्रष्टा, गार्हपत्य आदि अग्नि, मुण्‍डी (चूड़ारहित) और कपर्दी (जटाजूटधारी) हैं, उन भगवान शंकर के महान सौभाग्‍य का आप वर्णन कीजिए।"

भगवान श्रीकृष्‍ण ने कहा- "भगवान शंकर के कर्मों की गति का यथार्थ रूप से ज्ञान होना अशक्‍य है। ब्रह्मा और इन्‍द्र आदि देवता, महर्षि तथा सूक्ष्‍मदर्शी आदित्‍य भी जिनके निवास स्‍थान को नहीं जानते, सत्‍पुरुषों के आश्रयभूत उन भगवान शिव के तत्त्व का ज्ञान मनुष्‍य मात्र को कैसे हो सकता है? अत: मैं उन असुर विनाशक व्रतेश्‍वर भगवान शंकर के कुछ गुणों का आप लोगों के समक्ष यथार्थ रूप से वर्णन करूँगा।"

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर भगवान श्रीकृष्‍ण आचमन करके पवित्र हो बुद्धिमान परमात्‍मा शिव के गुणों का वर्णन करने लगे। भगवान श्रीकृष्‍ण बोले- "यहाँ बैठे हुए ब्राह्मण शिरोमणियों! सुनो, तात युधिष्ठिर! और गंगानन्‍दन भीष्‍म! आप लोग भी यहाँ भगवान शंकर के नामों का श्रवण करें। पूर्वकाल में सांब की उत्‍पति के लिये अत्‍यन्‍त दुष्‍कर तप करके मैंने जिस दुर्लभ नाम समूह का ज्ञान प्राप्‍त किया था और समाधि के द्वारा भगवान शंकर का जिस प्रकार यथावत रूप से साक्षात्‍कार किया था, वह सब प्रसंग सुना रहा हूँ।

युधिष्ठिर! बुद्धिमान रुक्मिणीनन्‍दन प्रद्युम्न के द्वारा पूर्वकाल में जब शम्‍बरासुर मारा गया और वे द्वारका में आये, तब से बारह वर्ष व्‍यतीत होने के पश्चात रुक्मिणी के प्रद्युम्न, चारुदेष्ण आदि पुत्रों को देखकर पुत्र की इच्‍छा रखने वाली जाम्बवती मेरे पास आकर इस प्रकार बोली- 'अच्‍युत! आप मुझे अपने ही समान शूरवीर, बलवानों में श्रेष्‍ठ तथा कमनीय रूप-सौदर्य से युक्‍त निष्‍पाप पुत्र प्रदान कीजिए। इसमें विलम्‍ब नहीं होना चाहिए। यदुकुलधुरन्‍धर! आपके लिये तीनों लोकों में कोई भी वस्‍तु अलभ्य नहीं है। आप चाहें तो दूसरे-दूसरे लोकों की सृष्टि कर सकते हैं। आपने बारह वर्षों तक व्रतपरायण हो अपने शरीर को सुखाकर भगवान पशुपति की आराधना की और रुक्मिणी देवी के गर्भ से अनेक पुत्र उत्‍पन्‍न किये। मधुसूदन! चारुदेष्ण, सुचारु, चारुवेश, यशोधर, चारुश्रवा, चारुयशा, प्रद्युम्न और शम्‍भु- इन सुन्‍दर पराक्रमी पुत्रों को जिस प्रकार आपने रुक्मिणी देवी के गर्भ से उत्‍पन्‍न किया है, उसी प्रकार मुझे भी पुत्र प्रदान कीजिये।'

देवी जाम्‍बवती के इस प्रकार प्रेरणा देने पर मैंने उस सुन्‍दरी से कहा- 'रानी! मुझे जाने की अनुमति दो। मैं तुम्‍हारी प्रार्थना सफल करूँगा।' उसने कहा- 'प्राणनाथ! आप कल्‍याण और विजय पाने के लिये जाइये। यदुनन्‍दन! ब्रह्मा, शिव, काश्‍यप, नदियाँ, मनोऽनुकुल देवगण, क्षेत्र, औषधियाँ, यज्ञवाह (मंत्र), छन्‍द, ऋषिगण, यज्ञ, समुद्र, दक्षिणा, स्‍तोभ (सामगानपूरक 'हावु' 'हायि' आदि शब्‍द), नक्षत्र, पितर, ग्रह, देवपत्नियाँ, देवकन्‍याएँ और देवमाताएँ, मन्‍वन्‍तर, गौ, चन्द्रमा, सूर्य, इन्‍द्र, सावित्री, ब्रह्मविद्या, ऋतु, वर्ष, क्षण, लव, मुहूर्त, निमेष और युग- ये सर्वत्र आपकी रक्षा करें। आप अपने मार्ग पर निर्विघ्‍न यात्रा करें और अनघ! आप सतत सावधान रहें।'

इस तरह जाम्‍बवती के द्वारा स्‍वस्तिवाचन के पश्‍चात मैं उस राजकुमारी की अनुमति ले नरश्रेष्‍ठ पिता वसुदेव, माता देवकी तथा राजा उग्रसेन के समीप गया। वहाँ जाकर विद्याधर राजकुमारी जाम्‍बवती ने अत्‍यंत आर्त होकर मुझसे जो प्रार्थना की थी, वह सब मैंने बताया और उन सबसे तप के लिये जाने की आज्ञा ली। गद और अत्‍यंत बलवान बलराम जी से विदा माँगी। उन दोनों ने बड़े दु:ख से अत्‍यंत प्रेमपूर्वक उस समय मुझसे कहा- 'भाई! तुम्‍हारी तपस्‍या निर्विघ्‍न पूर्ण हो।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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