महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 121 श्लोक 1-13

एकविंशत्यधिकशततम (121) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


व्यास-मैत्रेय-संवाद - विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा

भीष्म जी कहते हैं- राजन! व्यास जी के ऐसा कहने पर कर्मपूजक मैत्रेय ने जो अत्यन्त श्रीसम्पन्न कुल में उत्पन्न हुए बहुश्रुत विद्वान थे, उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया।

मैत्रेय बोले- महाप्रज्ञ! आप जैसा कहते हैं ठीक वैसी ही बात है, इसमें संशय नहीं है। प्रभो! यदि आप आज्ञा दें तो मैं कुछ कहूँ।

व्यास जी ने कहा- महाप्रज्ञ मैत्रेय! तुम जो-जो, जितनी-जितनी और जैसी-जैसी बातें कहना चाहो, कहो। मैं तुम्हारी बातें सुनूँगा।

मैत्रेय बोले- मुने! आपने दान के सम्बन्ध में जो बातें बतायी हैं, वे दोषरहित और निर्मल हैं। इसमें संदेह नहीं कि आपने विद्या ओर तपस्या से अपने अन्त:करण को परम पवित्र बना लिया है। आप शुद्धचित्त हैं, इसलिये आपके समागम से मुझे यह महान लाभ पहुँचा है। यह बात मैं समृद्धिशाली तप वाले महर्षि के समान बुद्धि से बारंबार विचार कर प्रत्यक्ष देखता हूँ। आपके दर्शन से ही हम लोगों का महान अभ्युदय हो सकता है। यह आपने जो दर्शन दिया, यह आपकी बहुत बड़ी कृपा है। मैं ऐसा ही मानता हूँ। यह कर्म भी आपकी कृपा से ही स्वभावतः बन गया है।

ब्राह्मणत्व के तीन कारण माने गये हैं- 'तपस्या', 'शास्त्रज्ञान' और 'विशुद्ध ब्राह्मण कुल में जन्म'। जो इन तीनों गुणों से सम्पन्न है, वही सच्चा ब्राह्मण है। ऐसे ब्राह्मण के तृप्त होने पर देवता और पितर भी तृप्त हो जाते हैं। विद्वानों के लिये ब्राह्मण से बढ़कर दूसरा कोई मान्य नहीं है। यदि ब्राह्मण न हो तो यह सारा जगत अज्ञानान्धकार से आच्छन्न हो जाये। किसी को कुछ सूझ न पड़े तथा चारों वर्णों की स्थिति, धर्म-अधर्म और सत्यासत्य कुछ भी न रह जाये। जैसे मनुष्य अच्छी तरह जोतकर तैयार किये हुए खेत में बीज डालने पर उसका फल पाता है, उसी प्रकार विद्वान ब्राह्मण को दान देकर दाता निश्चय ही उसके फल का भागी होता है।

यदि विद्या और सदाचार से सम्पन्न ब्राह्मण जो दान लेने का प्रधान अधिकारी है, धन न पा सके तो धनियों का धन व्यर्थ हो जाये। मूर्ख मनुष्य यदि किसी का अन्न खाता है तो वह उस अन्न को नष्ट करता है (अर्थात् कर्ता को उसका कुछ फल नहीं मिलता)। इसी प्रकार वह अन्न भी उस मूर्ख को नष्ट कर डालता है। जो सुपात्र होने के कारण अन्न और दाता की रक्षा करता है, उसकी भी वही अन्न रक्षा करता है। जो मूर्ख दान के फल का हनन करता है, वह स्वयं भी मारा जाता है। प्रभाव और शक्ति से सम्पन्न विद्वान ब्राह्मण यदि अन्न भोजन करता है तो वह पुनः अन्न का उत्पादन करता है, किंतु वह स्वयं अन्न से उत्पन्न होता है, इसलिये यह व्यतिक्रम सूक्ष्म (दुर्विज्ञेय) है अर्थात यद्यपि वृष्टि से अन्न की और अन्न से प्रजा की उत्पत्ति होती है; किंतु यह प्रजा (विद्वान ब्राह्मण) से अन्न की उत्पत्ति का विषय दुर्विज्ञेय है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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