महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 119 श्लोक 1-15

एकोनविंशत्यधिकशततम (119) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकोनविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म लेकर ब्रह्मलोक में जाकर सनातन ब्रह्म को प्राप्त करना

भीष्म जी कहते हैं- राजा युधिष्ठिर! इस प्रकार कीट योनि का त्याग करके अपने पूर्वजन्म का स्मरण करने वाला वह जीव अब क्षत्रिय धर्म को प्राप्त हो विशेष शक्तिशाली हो गया और बड़ी भारी तपस्या करने लगा। तब धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानने वाले उस राजकुमार की उग्र तपस्या देखकर विप्रवर श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी उसके पास आये।

व्यास जी ने कहा- पूर्वजन्म के कीट! प्राणियों की रक्षा करना देवताओं का व्रत है और यही क्षात्रधर्म है। इसका चिंतन और पालन करके तुम अगले जन्म में ब्राह्मण हो जाआगे। तुम शुभ और अशुभ का ज्ञान प्राप्त करो तथा अपने मन और इन्द्रियों को वश में करके भलीभाँति प्रजा का पालन करो। उत्तम भोगों का दान करते हुए अशुभ दोषों का मार्जन करके प्रजा को पावन बनाकर आत्मज्ञानी एवं सुप्रसन्न हो जाओ तथा सदा स्वधर्म के आचरण में तत्पर रहो। तदनन्तर क्षत्रिय शरीर का त्याग करके ब्राह्मणत्व को प्राप्त करोगे।

भीष्म जी कहते हैं- नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिर! वह भूतपूर्व कीट महर्षि वेदव्यास का वचन सुनकर धर्म के अनुसार प्रजा का पालन करने लगा। तत्पश्चात वह पुनः वन में जाकर थोड़े ही समय में परलोकवासी हो प्रजापालनरूप धर्म के प्रभाव से ब्राह्मण कुल में जन्म पा गया। उसे ब्राह्मण हुआ जान महायशस्वी महाज्ञानी श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास पुनः उसके पास आये।

व्यास जी ने कहा- ब्राह्मणशिरोमणे! अब तुम्हें किसी प्रकार व्यथित नहीं होना चाहिये। उत्तम कर्म करने वाला उत्तम योनि में और पाप कर्म करने वाला पाप योनियों में जन्म लेता है। धर्मज्ञ! मनुष्य जैसा पाप करता है, उसके अनुसार ही उसे फल भोगना पड़ता है। अतः भूतपूर्व कीट! अब तुम मृत्यु के भय से किसी प्रकार व्यथित न होओ। हाँ, तुम्हें धर्म के लोप का भय अवश्य होना चाहिये, इसलिये उत्तम धर्म का आचरण करते रहो।

भूतपूर्व कीट ने कहा- भगवन! आपके ही प्रयत्न से मैं अधिकाधिक सुख की अवस्था को प्राप्त होता गया हूँ। अब इस जन्म में धर्ममूलक सम्पत्ति पाकर मेरा सारा पाप नष्ट हो गया।

भीष्म जी कहते हैं- राजन! भगवान व्यास के कथनानुसार उस भूतपूर्व कीट ने दुर्लभ ब्राह्मणत्व को पाकर पृथ्वी को सैंकड़ों यज्ञयूपों से अंकित कर दिया। तदनन्तर ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ होकर उसने ब्रह्मसालोक्य प्राप्त किया अर्थात ब्रह्मलोक में जाकर सनातन ब्रह्म को प्राप्त किया।

पार्थ! व्यास जी के कथनानुसार उसने स्वधर्म का पालन किया। उसी का यह फल हुआ कि उस कीट ने सनातन ब्रह्मपद प्राप्त कर लिया।

बेटा! (क्षत्रिय योनि में उस कीट ने युद्ध करके प्राण त्याग किया था, इसलिये उसे उत्तम योनि प्राप्त हुई।) इसी प्रकार जो प्रधान-प्रधान क्षत्रिय अपनी शक्ति का परिचय देते हुए इस रणभूमि में मारे गये हैं, वे भी पुणयमयी गति को प्राप्त हुए हैं। अतः उसके लिये तुम शोक न करो।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में कीड़े का उपाख्यान विषयक एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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