महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 102 श्लोक 1-15

द्वयधिकशततम (102) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: द्वयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


भिन्‍न-भिन्‍न कर्मों के अनुसार भिन्‍न-भिन्‍न लोकों की प्राप्ति बताने के लिये धृतराष्‍ट्र रूपधारी इन्‍द्र और गौतम ब्राह्मण के संवाद का उल्‍लेख

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! (मृत्यु के पश्चात) सभी पुण्यात्मा एक ही तरह के लोक में जाते हैं या वहाँ उन्हें प्राप्त होने वाले लोकों में भिन्नता होती है? दादा जी यह मुझे बताइये।

भीष्म जी ने कहा- कुन्तीनन्दन! मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न लोकों में जाते हैं। पुण्यकर्म करने वाले पुण्यलोकों में जाते हैं और पापाचारी मनुष्य पापमय लोकों में। तात! इस विषय में विज्ञ पुरुष इन्द्र और गौतम मुनि के संवादरूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। पूर्वकाल में गौतम नाम वाले एक ब्राह्मण थे, जिनका स्वभाव बड़ा कोमल था। वे मन को वश में रखने वाले और जितेन्द्रिय थे। उन व्रतधारी मुनि ने विशाल वन में एक हाथी के बच्चे को अपनी माता के बिना बड़ा कष्ट पाते देखकर उसे कृपापूर्वक जिलाया। दीर्घकाल के पश्चात वह हाथी बढ़कर अत्यंत बलवान हो गया।

उस महानाग के कुम्भस्थल से फूटकर मद की धारा बहने लगी। मानो पर्वत से झरना झर रहा हो। एक दिन इन्द्र ने राजा धृतराष्ट्र के रूप में आकर उस हाथी को अपने अधिकार में कर लिया। कठोर व्रत का पालन करने वाले महातपस्वी गौतम ने उस हाथी का अपहरण होता देख राजा धृतराष्ट्र से कहा- 'कृतज्ञताशून्‍य राजा धृतराष्ट्र! तुम मेरे इस हाथी को न ले जाओ। यह मेरा पुत्र है। मैंने बड़े दुःख से इसका पालन-पोषण किया है। सत्पुरुषों में सात पग साथ चलने मात्र से मित्रता हो जाती है। इस नाते हम और तुम दोनों मित्र हैं। मेरे इस हाथी को ले जाने से तुम्हें मित्रद्रोह का पाप लगेगा। तुम्हें यह पाप न लगे, ऐसी चेष्टा करो। राजन! यह मुझे समिधा और जल लाकर देता है। मेरे आश्रम में जब कोई नहीं रहता है, तब यही रक्षा करता है। आचार्य कुल में रहकर इसने विनय की शिक्षा ग्रहण की है। गुरुसेवा के कार्य में यह पूर्णरूप से संलग्न रहता है। यह शिष्ट, जितेन्द्रिय, कृतज्ञ तथा मुझे सदा ही प्रिय है। मैं चिल्ला-चिल्लाकर कहता हूं, तुम मेरे इस हाथी को न ले जाओ।'

धृतराष्ट्र ने कहा- महर्षे! मैं आपको एक हज़ार गौएँ दूँगा। सौ दासियाँ और पांच सौ स्वर्णमुद्राएँ प्रदान करूँगा और भी नाना प्रकार का धन समर्पित करूँगा। ब्राह्मण के यहाँ हाथी का क्या काम है?

गौतम बोले- राजन! वे गौएँ, दासियाँ, स्वर्ण मुद्राएँ, नाना प्रकार के रत्न तथा और भी तरह-तरह के धन तुम्हारे ही पास रहें। नरेन्द्र! ब्राह्मण के यहाँ धन का क्या काम है।

धृतराष्ट्र ने कहा- 'विप्रवर गौतम! ब्राह्मण को हाथियों से कोई प्रयोजन नहीं है। हाथियों के समूह तो राजाओं के ही काम आते हैं। हाथी मेरा वाहन है, अतः इस श्रेष्ठ हाथी को ले जाने में कोई अधर्म नहीं है। आप इसकी ओर से अपनी तृष्णा हटा लीजिये।'

गौतम ने कहा- 'महात्मन! जहाँ जाकर पुण्यकर्मा पुरुष आनन्दित होता है और जहाँ जाकर पापकर्मा मनुष्य शोक में डूब जाता है, उस यमराज के लोक में तुमसे अपना हाथी वसूल लूँगा।'

धृतराष्ट्र ने कहा- 'जो निष्क्रिय, नास्तिक, श्रद्धाहीन, पापात्मा और इन्द्रियों के विषयों में आसक्त हैं, वे ही यमयातना को प्राप्त होते हैं; परंतु राजा धृतराष्ट्र को वहाँ नहीं जाना है।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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