महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 85 में महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति का वर्णन हुआ है[1]-

ब्रह्मदर्शन नामक वृतांत का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! वसिष्ठ जी कहते हैं- परशुराम! परमात्मा! पितामह! ब्रह्मा का जो ब्रह्मदर्शन नामक वृतांत जो मैंने पूर्वकाल में सुना था, वह तुम्हें बता रहा हूं, सुनो- प्रभावशाली तात परशुराम! एक समय की बात है, सबसे ईश्वर और महान देवता भगवान रुद्र वरुण का स्वरूप धारण करके वरुण के साम्राज्य पर प्रतिष्ठित थे। उस समय में उनके यज्ञ में अग्नि आदि सम्पूर्ण देवता और ऋषि पधारे। सम्पूर्ण मूर्तिमान यज्ञांग, वषट्कार, साकार साम, सहस्रों यजुमन्त्र तथा पद और क्रम से विभूषित ऋग्वेद भी वहाँ उपस्थित हुए। वेदों के लक्षण, उदात्त आदि स्वर, स्तोत्र, निरूक्त, सुरपंक्ति, आंकार तथा यज्ञ के नेत्र स्वरूप प्रग्रह और निग्रह भी उस स्थान पर स्थित थे। वेद, उपनिषद्, विद्या और सावित्री देवी भी वहाँ आयी थीं। भगवान शिव ने भूत, वर्तमान और भविष्य- तीनों कालों को धारण किया था। प्रभो! पिनाकधारी महादेव जी ने अनेक रूपवाले उस यज्ञ की शोभा बढ़ायी और उन्होंने स्‍वयं ही अपने द्वारा अपने आपको आहुति प्रदान की।[1]

ये भगवान शिव ही स्वर्ग, आकाश, पृथ्वी समस्त शून्य प्रदेश, राजा, सम्पूर्ण विद्याओं के अधीश्‍वर तथा तेजस्वी अग्निरूप हैं। ये ही भगवान सर्वभूतपति महादेव, ब्रह्मा, शिव, रुद्र, वरुण, अग्नि, प्रजापति तथा कल्याणमय शम्भु आदि नामों से पुकारे जाते हैं। भृगुकुलभूषण! इस प्रकार भगवान पशुपति का वह यज्ञ चलने लगा। उसमें सम्मिलित होने के लिये तप, क्रतु, उद्दीप्त व्रतवाली दीक्षा देवी, दिक्पालों सहित दिशाऐं, देवपत्‍नीयां, देवकन्नाऐं तथा देव-माताऐं भी एक साथ आयी थीं। महात्मा वरुण पशुपति के यज्ञ में आकर वे देवांगनाऐं बहुत प्रसन्न थीं। उस समय उन्हें देखकर स्‍वयम्भू ब्रह्मा जी का वीर्य स्खलित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। तब ब्रह्मा जी के वीर्य से संसिक्त धूलिकणों को दोनों हाथों द्वारा भूमि से उठाकर पूषा ने उसी आग में फेंक दिया। तदनन्तर प्रज्वलित अग्नि वाले उस यज्ञ के चालू होने पर वहाँ ब्रह्मा जी का वीर्य पुनः स्खलित हुआ। भृगुनन्दन! स्खलित होते ही उस वीर्य को स्त्रुवे में लेकर उन्होंने स्वयं ही मंत्र पढ़ते हुए घी की भाँति उसका होम कर दिया। शक्तिशाली ब्रह्मा जी ने उस त्रिगुणात्मक वीर्य से चतुर्विध प्राणि समुदाय को जन्म दिया। उनके वीर्य का जो रजोमय अंश था, उससे जगत में तेजस प्रवृति प्रधान जंगम प्राणियों की उत्पत्ति हुई। तमोमय अंश से तामस पदार्थ- स्थावर वृक्ष आदि प्रकट हुए और जो सात्त्विक अंश था, राजस और कामस दोनों में अन्तर्भूत हो गया।[2]

महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति

वह सत्त्वगुण अर्थात प्रकाश स्वरूपा बुद्धि का नित्य स्वरूप है और आकाश आदि सम्पूर्ण विश्‍व भी उस बुद्धि का कार्य होने से उसका ही स्वरूप है। अतः सम्पूर्ण भूतों में जो सत्त्वगुण तथा उत्तम तेज है, वह प्रजापति के उस शुक्र से ही प्रकट हुआ है। प्रभो! ब्रह्मा जी के वीर्य की जब अग्नि में आहुति दी गयी तब उससे तीन शरीरधारी पुरुष उत्पन्न हुए, जो अपने-अपने कारण जनित गुणों से सम्पन्न थे। भृगु अर्थात अग्नि की ज्वाला से उत्पन्न होने के कारण एक पुरुष का नाम ‘भृगु’ हुआ। अंगारों से प्रकट हुए दूसरे पुरुष का नाम ‘अंगिरा’ हुआ। और अंगारों के आश्रित जो स्वल्प मात्र ज्वाला या भृगु होती है उससे ‘कवि’ नामक तीसरे पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ। भृगु जी ज्वालाओं के साथ ही उत्पन्न हुऐ थे, उससे भृगु कहलाये। उसी अग्नि की मरीचियों से मरीची उत्पन्न हुए; जिनके पुत्र मारीच-कश्‍यप नाम से विख्यात हैं। तात! अंगारों से अंगिरा और कुशों के ढेर से वालखिल्य नामक ऋषि प्रकट हुए थे। विभो! अत्रैव्य- उन्हीं कुश समूहों से एक और ब्रह्मर्षि उत्पन्न हुए, जिन्हें लोग ‘अत्रि’ कहते हैं। भस्‍म-राशियों से ब्रह्मर्षियों द्वारा सम्मानित वैखानसों की उत्पत्ति हुई जो तपस्या, शास्त्रज्ञान और सदगुणों के अभिलाषी होते हैं। अग्नि के अश्रु से दोनों अश्विनीकुमार प्रकट हुए, जो अपनी रूप-संपत्ति के द्वारा सर्वत्र सम्मानित हैं। शेष प्रजापतिगण उनके श्रवण आदि इन्द्रियों से उत्पन्न हुए। रोमकूपों से ऋषि, पसीने से छन्द और वीर्य से मन की उत्पत्ति हुई। इस कारण से शास्त्र ज्ञान सम्पन्न महर्षियों ने वेदों की प्रमाणिकता पर दृष्टि रखते हुए अग्नि को सर्वदेवमय बताया है। उग यज्ञ में जो समिधाऐं काम में ली गयीं तथा उनसे जो रस निकला वे ही सब मास, पक्ष, दिन, रात एवं मुहुर्त रूप हो गये और अग्नि को जो पित्त था वह उग्र तेज होकर प्रकट हुआ। अग्नि के तेज को लोहित कहते हैं, उस लोहित से कनक उत्पन्न हुआ। उस कनक को मैत्र जानना चाहिये तथा अग्नि से धूम से वसुओं की उत्पत्ति बताई गयी है।

अग्नि की जो लपटें होती हैं, वे ही एकादश रुद्र तथा अत्यन्त तेजस्वी द्वादश आदित्य है, तथा उस यज्ञ में जो दूसरे-दूसरे अंगारे थे वे ही आकाश स्थित नक्षत्र मण्डलों में ज्योतिःपुंज के रूप में स्थित हैं। इस लोक के जो आदि स्रष्टा हैं, उन ब्रह्मा जी का कथन है कि अग्नि पर ब्रह्म स्वरूप है। वहीं अविनाशी पर ब्रह्म परमात्मा है, वही सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाला है। यह गोपनीय रहस्य ज्ञानी पुरुष बताते हैं। तब वरुण एवं वायु रूप महादेव जी ने कहा- देवताओं! यह मेरा दिव्य यज्ञ है। मैं ही इस यज्ञ का गृहस्थ यजमान हूँ। ‘आकाशचारी देवगण! पहले जो तीन पुरुष प्रकट हुए हैं, वे भृगु, अंगिरा और कवि मेरे पुत्र हैं, इसमें संशय नहीं है। इस बात को तुम जान लो; क्योंकि इस यज्ञ का जो कुछ फल है उस पर मेरा ही अधिकार है। अग्नि बोले- ये तीनों संतानें मेरे अंगों से उत्पन्न हुई हैं और मेरे ही आश्रय में विधाता ने इनकी सृष्टि की है। अतः ये तीनों मेरे ही पुत्र हैं। वरुण रूपधारी महादेव जी का इन पर कोई अधिकार नहीं है। तदनन्तर लोक पितामह लोकगुरु ब्रह्मा जी ने कहा- ‘ये सब मेरी ही संताने हैं; क्योंकि मेरे ही वीर्य की आहुति दी गयी है; जिससे इनकी उत्पत्ति हुई है। ‘मैं ही यज्ञ का कर्ता और अपने वीर्य का हवन करने वाला हूँ। जिसका वीर्य होता है उसको ही उसका फल मिलता है। यदि इनकी उत्पत्ति में वीर्य को ही कारण माना जाये तो निश्‍चय ही ये मेरे पुत्र हैं। इस प्रकार विवाद उपस्थित होने पर समस्त देवताओं ने ब्रह्मा जी के पास जा दोनो हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर उनको प्रणाम किया और कहा।[2]

देवताओं का संवाद

भगवन! हम सब लोग और चराचर सहित सारा जगत ये सब के सब आपकी ही संतान हैं। अतः अब यह प्रकाशमान अग्नि और ये वरुण रूप धारी ईश्वर महादेव भी अपना मनोवांछित फल प्राप्त करें। तब ब्रह्मा जी की आज्ञा से जल-जन्तुओं के स्वामी वरुण रूपी भगवान शिव ने सबसे पहले सूर्य के समान तेजस्वी भृगु को पुत्र रूप में ग्रहण किया। फिर उन्होंने ही अंगिरा को अग्नि की संतान निश्चित किया। तदनन्तर तत्त्वज्ञानी ब्रह्मा ने कवि को अपनी संतान के रूप में ग्रहण किया। उस समय संतान के कर्तव्य को जानने वाले महर्षि भृगु वारुण नाम से विख्यात हुए। तेजस्वी अंगिरा आग्नेय तथा महायशस्वी कवि ब्रह्म नाम से विख्यात हुए। भृगु और अंगिरा- ये दोनो लोक में जगत की सृष्टि का विस्तार करने वाले बतलाये गये हैं। इस प्रकार ये तीनों प्रजापति हैं और शेष सब लोग इनकी संताने हैं। ये सारा जगत इन्हीं की संतति है, इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो। भृगु के सात पुत्र व्यापक हुए, जो उन्हीं के समान गुणवान थे। च्यवन, वज्रषीर्ष, शुचि, और्व, शुक्र, वरेण्य, तथा सवन- ये ही उन सातों के नाम हैं। सभी भृगुवंशी समान्यतः वारूण कहलाते हैं। जिनके वंश में तुम भी उत्पन्न हुए हो। अंगिरा के आठ पुत्र हैं, वे भी वारुण कहलाते हैं।[3] उनके नाम इस प्रकार हैं- बृहस्पति, उतथ्य, पयस्य, शान्ति, घोर, विरूप, संवर्त और आठवां सुधन्वा। ये आठ अग्नि के वंश में उत्पन्न हुए हैं। अतः आग्नेय कहलाते हैं। वे सब-के-सब ज्ञाननिष्ठ एवं निरामय (रोग-शोक से रहित) हैं। ब्रह्मा के पुत्र जो कवि हैं उनके पुत्रों को भी वारूण की संज्ञा है। वे आठ हैं सभी पुत्रोचित्त गुणों से सम्पन्न हैं। उन्हें शुभलक्षण एवं ब्रह्म ज्ञानी माना गया है। उनके नाम ये हैं- कवि, काव्य, धृष्णु, बुद्धिमान शुक्राचार्य, भृगु, विरजा, काषी तथा धर्मज्ञ उग्र। ये आठ कवि के पुत्र हैं। इन सबके द्वारा यह सारा जगत व्याप्त है। ये आठों प्रजापति हैं और प्रजा के गुणों से युक्त होने के कारण प्रजा भी कहे गये हैं। भृगुश्रेष्ठ! इस प्रकार अंगिरा, कवि और भृगु के वंश जो तथा संतान- परम्पराओं से सारा जगत व्याप्त है। विप्रवर! तात! प्रभावशाली जलेषवर वरुणरूप शिव ने पहले कवि और भृगु को पुत्र रूप से ग्रहण किया था, इसलिये वे वारूण कहलाये। ज्वालाओं से सुशोभित होने वाले अग्निदेव ने वरुण रूप शिव से अंगिरा को पुत्ररूप में प्राप्त किया; इसलिये अंगिरा के वंश में उत्पन्न सभी पुत्र अग्निवंशी एवं वारूण नाम से भी जानने योग्य हैं। पूर्वकाल में देवताओं ने पितामह ब्रह्मा को प्रसन्न किया और कहा- ‘प्रभो। आप ऐसी कृपा कीजिये जिससे ये भृगु आदि के वंश जो इस पृथ्वी का पालन करते हुए अपनी संतानों द्वारा हमारा संकट से उद्धार करें। ये सभी प्रजापित हों और सभी अत्यन्त तपस्वी हों। ये आपके कृपा प्रसाद से इस समय इस संपूर्ण लोक का संकट से उद्धार करेंगे।[4]

‘आपकी दया से ये सब लोग वंश प्रर्वतक, आपके तेज की बृद्वि करने वाले तथा वेदज्ञ पुण्यात्मा हों। ‘इन सबका स्वभाव सौम्य हो। प्रजापतियों के वंश में उत्पन्न हुए ये महर्षिगण सदा देवताओं के पक्ष में रहें तथा तप और उत्तम ब्रह्मचर्य का बल प्राप्त करें।' ‘प्रभो! पितामह! ये सब और हम लोग आप ही की संतान हैं; क्योंकि देवताओं और ब्राह्मणों की सृष्टि करने वाले आप ही हैं। ‘पितामह! कश्‍यप से लेकर समस्त भृगुवंशियों तक हम सब लोग आप ही की संतान हैं- ऐसा सोचकर आपसे अपनी भूलों के लिये क्षमा चाहते हैं। वे प्रजापतिगण इसी रूप से प्रजाओं को उत्पन्न करेंगे और सृष्टि के प्रारंभ से लेकर प्रलय पर्यन्त अपने आप को मर्यादा में स्थापित किये रहेंगे। देवताओं के ऐसा कहने पर लोकपितामह ब्रह्मा प्रसन्न होकर बोले- ‘तथास्तु’ (ऐसा ही हो)।’ तत्पश्‍चात देवता जैसे आये थे वैसे ही लौट गये। इस प्रकार पूर्वकाल में जबकि सृष्टि के प्रारम्भ का समय था, वरुण-षरीर धारण करने वाले सुरश्रेष्ठ महात्मा रुद्र के यज्ञ में पूर्वोक्त वृतांत घटित हुआ था। अग्नि ही ब्रह्मा, पशुपति, शर्व, रुद्र और प्रजापति रूप है। यह सुवर्ण अग्नि की ही संतान है- ऐसी सबकी मान्यता है। जमदग्निन्दन परशुराम! वेद-प्रमाण का ज्ञाता पुरुष वैदिक श्रुति के दृष्टांत के अनुसा अग्नि के अभाव में उसके स्थान पर सुवर्ण का उपयोग करता है। कुशों के समूहों पर, उस पर रखे हुए सुवर्ण पर, बांबी के छिद्र में, बकरे के दाहिने कान पर, जिस मार्ग से छकड़ा आता-जाता हो उस भूमि पर- दूसरे के जलाशय में तथा ब्राह्मण के हाथ पर वैदिक प्रमाण मानने वाले पुरुष अग्नि स्वरूप मानकर होम आदि कर्म करते हैं और वह होम कार्य सम्पन्न होने पर भगवान अग्निदेव आनन्द दायिनी समृद्धि का अनुभव करते हैं। अतः सब देवताओं में अग्नि ही श्रेष्ठ है। ये हमने सुना है। ब्रह्मा से अग्नि की उत्पत्ति भी है और अग्नि से सुवर्ण की। इसलिये जो धर्मदर्शी पुरुष सुवर्ण का दान करते है; वे समस्त देवताओं का ही दान करते हैं, ये हमारे सुनने में आया है।[4]

सुवर्णदान का महात्यम

सुवर्णदाता परम गति को प्राप्त होता है, उसे अंधकार रहित ज्योर्तिमय लोक मिलते हैं। भृगुनन्दन! स्वर्गलोक में उसका राजाधिराज (कुबेर) के पद पर अभिषेक किया जाता है। जो सूर्योदयकाल में विधिपूर्वक मंत्र पढ़कर सुवर्ण का दान करता है, वह अपने पाप और दुःस्वप्न को नष्ट कर डालता है। सूर्योदय के समय जो सुवर्ण दान करता है, उसका सारा पाप धुल जाता है, तथा जो मध्यान्ह काल में सोना दान करता है, वह अपने भविष्य के पापों का नाश कर देता है। जो सांय- संध्या के समय व्रत का पालन करते हुए सुवर्णदान देता है, वह ब्रह्मा, वायु, अग्नि और चन्द्रमा के लोकों में जाता है। इन्द्र सहित सभी लोकपालों के लोकों में उसे शुभ सम्मान प्राप्त होता है। साथ ही वह इस लोक में यशस्वी एवं पाप रहित होकर आनन्द भोगता है। मृत्यु के पश्चात जब वह परलोक में जाता है, तब वहाँ अनुपम पुण्यात्मा समझा जाता है। कहीं भी उसकी गति का प्रतिरोध नहीं होता और वह इच्छानुसार जहाँ चाहता है विचरता रहता है। सुवर्ण अक्षय द्रव्य है, उसका दान करने वाले मनुष्यों को पुण्य लोकों से नीचे नहीं आना पड़ता।[5]

संसार में उसे महान यश की प्राप्ति होती है तथा परलोक में उसे अनेक समृद्धिशाली पुण्यलोक प्राप्त होते हैं। जो मनुष्य सूर्योदय के समय अग्नि प्रकट करके किसी व्रत के उद्देश्‍य से सुवर्णदान करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। सुवर्ण को अग्नि स्वरूप ही कहते हैं। उसका दान सुख देने वाला होता है। वह यथेष्ट पुण्य को उत्पन्न करने वाला और दानेच्छा का प्रवर्तक माना गया है। प्रभो! निष्पाप भृगुनन्दन! यह मैंने तुम्हें सुवर्ण और कार्तिकेय की उत्पत्ति बतायी है। इसे अच्छी तरह समझ लो।

कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध

भृगुश्रेष्ठ! कार्तिकेय जब दीर्घकाल में बड़े हुए तब इन्द्र आदि देवताओं ने उनको अपने सेनापति के पद पर स्थापित किया। ब्राह्मन! उन्होंने लोकों के हित की कामना एवं देवराज इन्द्र की आज्ञा से प्रेरित हो तारकासुर तथा अन्य दैत्यों का संहार कर डाला। प्रभो! देवताओं में श्रेष्ठ! इस प्रकार मैंने तुम्हें सुवर्णदान का माहात्मय बताया है। इसलिये अब तुम ब्राह्मणों का सुवर्ण का दान करो।

भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! वसिष्ठ जी के ऐसा कहने पर प्रतापी परशुराम जी ने ब्राह्मणों का सुवर्ण का दान किया। इससे वे सब पापों से छुटकारा पा गये।। राजा युधिष्ठिर! इस प्रकार मैंने तुम्हे सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान का फल यह सब कुछ बता दिया। अतः नरेश्‍वर! अब तुम भी ब्राह्मणों को बहुत-सा सुवर्ण दान करो। सुवर्ण दान करके तुम पाप से मुक्त हो जाओगे।[5]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 85 श्लोक 62-93
  2. 2.0 2.1 महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 85 श्लोक 94-121
  3. वरुण के यज्ञ के उत्पन्न होन से ही उनकी वारुण संज्ञा हुई है।
  4. 4.0 4.1 महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 85 श्लोक 122-152
  5. 5.0 5.1 महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 85 श्लोक 153-168

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द्वारा मतंग को समझाना | मतंग की तपस्या और इन्द्र का उसे वरदान | वीतहव्य के पुत्रों से काशी नरेशों का युद्ध | प्रतर्दन द्वारा वीतहव्य के पुत्रों का वध | वीतहव्य को ब्राह्मणत्व प्राप्ति की कथा | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के लक्षण | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के आदर-सत्कार से होने वाले लाभ का वर्णन | वृषदर्भ द्वारा शरणागत कपोत की रक्षा | वृषदर्भ को पुण्य के प्रभाव से अक्षयलोक की प्राप्ति | भीष्म द्वारा यूधिष्ठिर से ब्राह्मण के महत्त्व का वर्णन | भीष्म द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों की प्रशंसा | ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मण प्रशंसा विषयक इन्द्र और शम्बरासुर का संवाद | दानपात्र की परीक्षा | पंचचूड़ा अप्सरा का नारद से स्त्री दोषों का वर्णन | युधिष्ठिर के स्त्रियों की रक्षा के विषय में प्रश्न | भृगुवंशी विपुल द्वारा योगबल से गुरुपत्नी की रक्षा | विपुल का देवराज इन्द्र से गुरुपत्नी को बचाना | विपुल को गुरु देवशर्मा से वरदान की प्राप्ति | विपुल को दिव्य पुष्प की प्राप्ति और चम्पा नगरी को प्रस्थान | विपुल का अपने द्वारा किये गये दुष्कर्म का स्मरण करना | देवशर्मा का विपुल 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विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना | दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम | गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य | व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व | गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना | गोदान करने वाले नरेशों के नाम | कपिला गौओं की उत्पत्ति | कपिला गौओं की महिमा का वर्णन | वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना | गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति | विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति | गौओं तथा गोदान की महिमा | व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन | व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन | व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी और गौओं का संवाद | गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना | ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना | भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना | सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा | पार्वती का देवताओं को शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा | इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत | अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ | इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना | सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना | जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना | छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा | गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद | तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद | नहुष का ऋषियों पर अत्याचार | महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप | नहुष का पतन | शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा | ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद | ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति | धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद | ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद | आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन | गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण | बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन | माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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