मध्वाचार्य

मध्वाचार्य
मध्वाचार्य
पूरा नाम मध्वाचार्य
अन्य नाम मध्व
जन्म विक्रम संवत 1295 को माघ शुक्‍ला सप्‍तमी
जन्म भूमि उडूपी, मंगलूर ज़िला, मद्रास प्रान्‍त (वर्तमान चैन्नई)
मृत्यु स्थान सरिदन्‍तर
अभिभावक पिता- नारायणभट्ट, माता- वेदवती
कर्म भूमि भारत
मुख्य रचनाएँ 'गीताभाष्य', 'भागवततात्पर्यनिरणय', 'महाभारततात्पर्यनिर्णय', 'विष्णुतत्त्वनिर्णय', 'प्रपंचमिथ्यातत्त्वनिर्णय', 'गीतातात्पर्यनिर्णय', 'तंत्रसारसंग्रह' आदि।
प्रसिद्धि संत, दार्शनिक
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख माध्व सम्प्रदाय
प्रवर्तन मध्वाचार्य 'तत्त्ववाद' के प्रवर्तक थे, जिसे 'द्वैतवाद' के नाम से भी जाना जाता है।
अन्य जानकारी मध्वाचार्य को प्रकार की योगसिद्धियां प्राप्‍त की थीं और इनके जीवन में समय-समय पर वे प्रकट भी हुईं। इन्‍होंने अनेकों मूर्तियों की स्‍थापना की और इनके द्वारा प्रतिष्ठित विग्रह आज भी विद्यमान हैं।

मध्वाचार्य भक्ति आन्दोलन के समय के सबसे महत्त्वपूर्ण दार्शनिकों में से एक थे। वे 'पूर्णप्रज्ञ' व 'आनंदतीर्थ' के नाम से भी प्रसिद्ध हुए थे। मध्वाचार्य 'तत्त्ववाद' के प्रवर्तक थे, जिसे 'द्वैतवाद' के नाम से भी जाना जाता है। द्वैतवाद, वेदान्त की तीन प्रमुख दर्शनों में से एक है। मध्वाचार्य को वायु का तृतीय अवतार माना जाता है।

जन्म

श्रीभगवान नारायण की आज्ञा से स्‍वयं वायुदेव ने ही भक्ति सिद्धान्‍त की रक्षा के लिये मद्रास प्रान्‍त (वर्तमान चैन्नई) के मंगलूर ज़िले के अन्‍तर्गत उडूपी क्षेत्र से दो-तीन मील दूर वेललि ग्राम में भार्गवगोत्रीय नारायणभट्ट के अंश से तथा माता वेदवती के गर्भ से विक्रम संवत 1295 को माघ शुक्‍ला सप्‍तमी के दिन आचार्य मध्‍व के रूप में अवतार ग्रहण किया था। कई लोगों ने आश्विन शुक्‍ला दशमी को इनका जन्‍म दिन माना है। परंतु वह इनके वेदान्‍त साम्राज्‍य के अभिषेक का दिन है, जन्‍म का नहीं। इनके जन्‍म के पूर्व पुत्र प्राप्ति के लिये माता-पिता को बड़ी तपस्‍या करनी पड़ी थी।

शिक्षा

बचपन से ही इनमें अलौकिक शक्ति दीखती थी। इनका मन पढ़ने में नहीं लगता था, अत: यज्ञोपवीत होने पर भी ये दौड़ने, कूदने-फांदने, तैरने और कुश्‍ती लड़ने में ही लगे रहते थे। अत: बहुत-से लोग इनके पितृदत्‍त नाम वासुदेव के स्‍थान पर इन्‍हें ‘भीम’ नाम से पुकारते थे। ये वायुदेव के अवतार थे, इसलिये यह नाम भी सार्थक ही था। परंतु इनका अवतार-उद्देश्‍य खेलना-कूदना तो था नहीं, अत: जब वेद-शास्‍त्रों की ओर इनकी रुचि हुई, तब थोड़ ही दिनों में इन्‍होंने सम्‍पूर्ण विद्या अनायास ही प्राप्‍त कर ली।

संन्यास

जब इन्‍होंने संन्‍यास लेने की इच्‍छा प्रकट की, तब मोहवश माता-पिता ने बड़ी अड़चनें डालीं, परंतु इन्‍होंने उनकी इच्‍छा के अनुसार उन्‍हें कई चमत्‍कार दिखाकर, जो अब तक एक सरोवर और वृक्ष के रूप में इनकी जन्‍म भूमि में विद्यमान हैं और एक छोटे भाई के जन्‍म की बात कहकर, ग्‍यारह वर्ष की अवस्‍था में अद्वैतमत के संन्‍यासी अच्‍युतपक्षाचार्य जी से संन्‍यास ग्रहण किया। यहाँ पर इनका संन्‍यासी नाम 'पूर्णप्रज्ञ' हुआ। संन्‍यास के पश्‍चात इन्‍होंने वेदान्‍त का अध्‍ययन आरम्‍भ किया। इनकी बुद्धि इतनी तीव्र थी कि अध्‍ययन करते समय ये कई बार गुरु जी को ही समझाने लगते और उनकी व्‍याख्‍या का प्रतिवाद कर देते। सारे दक्षिण देश में इनकी विद्वत्ता की धूम मच गयी।

एक दिन इन्‍होंने अपने गुरु से गंगास्नान और दिग्विजय करने के लिये आज्ञा मांगी। ऐसे सुयोग्‍य शिष्‍य के विरह की सम्‍भावना से गुरुदेव व्‍याकुल हो गये। उनकी व्‍याकुलता देखकर अनन्‍तेश्‍वरजी ने कहा कि "भक्‍तों के उद्धारार्थ गंगाजी स्‍वयं सामने वाले सरोवर में परसों आयेंगी, अत: वे यात्रा न कर सकेंगे। सचमुच तीसरे दिन उस तालाब में हरे पानी के स्‍थान पर सफ़ेद पानी हो गया और तरंगें दीखने लगीं। अत: आचार्य की यात्रा नहीं हो सकी। अब भी हर बारहवें वर्ष एक बार वहाँ गंगाजी का प्रादुर्भाव होता है। वहाँ एक मन्दिर भी है।

भगवद्भक्ति का प्रचार

कुछ दिनों के बाद आचार्य ने यात्रा की और स्‍थान-स्‍थान पर विद्वानों के साथ शास्‍त्रार्थ किये। इनके शास्‍त्रार्थ का उद्देश्‍य होता- "भगवद्भक्ति का प्रचार, वेदों की प्रामाणिकता का स्‍थापन, मायावाद का खण्‍डन और मर्यादा का संरक्षण"। एक जगह तो इन्‍होंने वेद, महाभारत और विष्णु सहस्रनाम के क्रमश: तीन, दस और सौ अर्थ हैं- ऐसी प्रतिज्ञा करके और व्‍याख्‍या करके पण्डित मण्‍डली को आश्‍चर्यचकित कर दिया। 'गीताभाष्‍य' का निर्माण करने के पश्‍चात इन्‍होंने बदरीनारायण की यात्रा की और वहाँ महर्षि वेदव्यास को अपना भाष्‍य दिखाया। कहते हैं दु:खी जनता का उद्धार करने के लिये उपदेश ग्रन्‍थ निर्माण आदि की इन्‍हें आज्ञा प्राप्‍त हुई। बहुत-से नृपतिगण इनके शिष्‍य हुए, अनेकों विद्वानों ने पराजित होकर इनका मत स्‍वीकार किया।

ग्रन्थ रचना

मध्वाचार्य ने अनेक ग्रन्थों की रचना, पाखण्डवाद का खण्डन और भगवान की भक्ति का प्रचार करके लाखों लोगों को कल्याणपथ का अनुगामी बनाया। अपने मत की अभिव्यक्ति के लिए मध्वाचार्य ने लगभग 30 वर्ष ग्रन्थ लेखन में बिताए। उनके ग्रन्थों की संख्या 37 बताई जाती है, उनमें से कतिपय के नाम इस प्रकार हैं- 'ब्रह्मसूत्रभाष्य अनुव्याख्यान', ऐतरेय, छान्दोग्य, केन, कठ, बृहदारण्यक आदि उपनिषदों का भाष्य, 'गीताभाष्य', 'भागवततात्पर्यनिरणय', 'महाभारततात्पर्यनिर्णय', 'विष्णुतत्त्वनिर्णय', 'प्रपंचमिथ्यातत्त्वनिर्णय', 'गीतातात्पर्यनिर्णय', 'तंत्रसारसंग्रह'।

मूर्तियों की स्‍थापना

इन्‍होंने अनेकों प्रकार की योगसिद्धियां प्राप्‍त की थीं और इनके जीवन में समय-समय पर वे प्रकट भी हुईं। इन्‍होंने अनेकों मूर्तियों की स्‍थापना की और इनके द्वारा प्रतिष्ठित विग्रह आज भी विद्यमान हैं। श्रीबदरीनारायण में व्‍यास जी ने इन्‍हें शालग्राम की तीन मूर्तियां भी दी थीं, जो इन्‍होंने सुब्रह्मण्‍य, उडूपि और मध्‍यतल में पधरायीं। एक बार किसी व्‍यापारी का जहाज़ द्वारका से मलाबार जा रहा था। तुलुब के पास वह डूब गया। उसमें गोपीचन्‍दन से ढकी हुई एक भगवान श्रीकृष्ण की सुन्‍दर मूर्ति थी। मध्‍वाचार्य को भगवान की आज्ञा प्राप्‍त हुई और उन्‍होंने मूर्तियों को जल से निकालकर उडूपि में उसकी स्‍थापना की। तभी से वह रजतपीठपुर अथवा उडूपि मध्‍वमतानुयायियों का तीर्थ हो गया। एक बार एक व्‍यापारी के डूबते हुए जहाज़ को इन्‍होंने बचा लिया। इससे प्रभावित होकर वह अपनी आधी सम्‍पत्ति इन्‍हें देने लगा। परंतु इनके रोम-रोम में भगवान का अनुराग और संसार के प्रति विरक्ति भरी हुई थी। ये भला, उसे क्‍यों लेने लगे। इनके जीवन में इस प्रकार के असामान्‍य त्‍याग के बहुत-से उदाहरण हैं।

कई बार लोगों ने इनका अनिष्‍ट करना चाहा और इनके लिखे हुए ग्रन्‍थ भी चुरा लिये। परंतु आचार्य इससे तनिक भी विचलित या क्षुब्‍ध नहीं हुए, बल्कि उनके पकड़ जाने पर उन्‍हें क्षमा कर दिया और उनसे बड़ प्रेम का व्‍यवहार किया। ये निरन्‍तर भगवत-चिन्‍तन में संलग्‍न रहते थे। बाहरी काम-काज भी केवल भगवत-सम्‍बन्‍ध से ही करते थे। इन्‍होंने उडूपि में और भी आठ मन्दिर स्‍थापित किये, जिनमें श्रीसीताराम, द्विभुज कालियदमन, चतुर्भुज कालियदमन, विट्ठल आदि आठ मूर्तियां हैं। आज भी लोग उनका दर्शन करके अपने जीवन का लाभ लेते हैं।

परमधाम की यात्रा

मध्वाचार्य अपने अन्तिम समय में सरिदन्‍तर नामक स्‍थान में रहते थे। यहीं पर उन्‍होंने परमधाम की यात्रा की। देहत्‍याग के अवसर पर पूर्वाश्रम के सोहन भट्ट को, अब जिनका नाम पद्मनाभतीर्थ हो गया था, श्रीरामजी की मूर्ति और व्‍यासजी की दी हुई शालग्राम शिला देकर अपने मत के प्रचार की आज्ञा कर गये। इनके शिष्‍यों के द्वारा अनेकों मठ स्‍थापित हुए। इनके मत का विशेष विवरण संक्षिप्‍त परिचय में देना संभव नहीं है।

मध्वाचार्य के उपदेश

  1. श्रीभगवान का नित्‍य-निरन्‍तर स्‍मरण करते रहना चाहिये, जिससे अन्‍तकाल में उनकी विस्‍मृति न हो, क्‍योंकि सैकड़ों बिच्‍छुओं के एक साथ डंक मारने से शरीर में जैसी पीड़ा होती है, मरणकाल में मनुष्‍य को वैसी ही पीड़ा होती है, वात, पित्‍त, कफ से कण्‍ठ अवरुद्ध हो जाता है और नाना प्रकार के सांसारिक पाशों से जकड़े रहने के कारण मनुष्‍य को बड़ी घबराहट हो जाती है। ऐसे समय में भगवान की स्‍मृति को बनाये रखना बड़ा कठिन हो जाता है।[1]
  2. सुख-दु:खों की स्थिति कर्मानुसार होने से उनका अनुभव सभी के लिये अनिवार्य है। इसीलिये सुख का अनुभव करते समय भी भगवान को न भूलो तथा दु:ख काल में भी उनकी निन्‍दा न करो। वेद-शास्‍त्र सम्‍मत कर्म मार्ग पर अटल रहो। कोई भी कर्म करते समय बड़े दीनभाव से भगवान का स्‍मरण करो। भगवान ही सबसे बड़े, सबके गुरु तथा जगत के माता-पिता हैं। इसीलिये अपने सारे कर्म उन्‍हीं को अर्पण करने चाहिये।[2]
  3. व्‍यर्थ के सांसारिक झंझटों के चिन्‍तन में अपना अमूल्‍य समय नष्‍ट न करो। भगवान में ही अपने अन्‍त:करण को लीन करो। विचार, श्रवण, ध्‍यान, स्‍तवन से बढ़कर संसार में अन्‍य कोई पदार्थ नहीं है।[3]
  4. भगवान के चरण कमलों का स्‍मरण करने की चेष्‍टा-मात्र से ही तुम्‍हारे पापों का पर्वत-सा ढेर नष्‍ट हो जायगा। फिर स्‍मरण से तो मोक्ष होगा ही, यह स्‍पष्‍ट है। ऐसे स्‍मरण का परित्‍याग क्‍यों करते हो।[4]
  5. सज्‍जनो! हमारी निर्मल वाणी सुनो। दोनों हाथ उठाकर शपथपूर्वक हम कहते हैं कि भगवान की बराबरी करने वाला भी इस चराचर जगत में कोई नहीं है, फिर उनसे श्रेष्‍ठ तो कोई हो ही कैसे सकता है। वे ही सबसे श्रेष्‍ठ हैं।[5]
  6. यदि भगवान सबसे श्रेष्‍ठ न होते तो समस्‍त संसार उनके अधीन किस प्रकार रहता और यदि समस्‍त संसार उनके अधीन न होता तो संसार के सभी प्राणियों को सदा-सर्वदा सुख की ही अनुभूति होनी चाहिये थी।[6]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. द्वा. स्‍तो. 1। 12
  2. द्वा. स्‍तो. 3। 1
  3. द्वा. स्‍तो. 3। 2
  4. द्वा. स्‍तो. 3। 3
  5. द्वा. स्‍तो. 3। 4
  6. द्वा. स्‍तो. 3। 5

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