मधुसूदन सरस्वती

मधुसूदन सरस्वती
मधुसूदन सरस्वती
पूरा नाम मधुसूदन सरस्वती
अन्य नाम कमलनयन
जन्म भूमि कोटालपाड़ा ग्राम,जिला- फरीदपुर, (बंगाल)
अभिभावक पिता- प्रमोदन पुरन्‍दर
गुरु दण्डिस्‍वामी श्री विश्‍वेश्‍वराश्रम जी
कर्म भूमि भारत
प्रसिद्धि संत
विशेष योगदान मधुसूदन सरस्वती जी को एक दयालु संत ने श्रीकृष्ण मंत्र देकर उपासना तथा ध्‍यान की विधि बतायी और चले गये। मधुसूदन सरस्‍वती ने तीन महीने तक उपासना की।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी मधुसूदन सरस्वती अद्वैतसिद्धि, सिद्धान्‍तबिन्‍दु, वेदान्‍तकल्‍पलतिका, अद्वैतरत्‍न-रक्षण, प्रस्‍थानभेद के लेखक इन प्रकाण्‍ड नैयायिक तथा वेदान्‍त के विद्वान ने भक्ति रसायन, गीता की ‘गूढार्थदीपिका’ नामक व्‍याख्‍या और श्रीमद्भागवत की व्‍याख्‍या लिखी।

मधुसूदन सरस्वती 'अद्वैत सम्प्रदाय' के प्रधान आचार्य और कई ग्रंथों के लेखक थे। इनके गुरु का नाम श्रीविश्वेश्वराश्रम था। मधुसूदन सरस्वती का जन्म स्थान बंगदेश था। विद्याध्ययन के अनन्तर ये काशी आये और यहाँ के प्रमुख पंडितों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। इस प्रकार विद्वानमण्डली में सर्वत्र इनकी कीर्तिकौमुदी फैलने लगी। इसी समय इनका परिचय विश्वेश्वराश्रम जी से हुआ था और उन्हीं की प्रेरणा से ये दण्डी संन्यासी हो गए।

परिचय

ईसा की लगभग सोलहवीं शताब्‍दी में बंगाल के फरीदपुर ज़िले के कोटालपाड़ा ग्राम में प्रमोदन पुरन्‍दर नामक एक विद्वान ब्राह्मण रहते थे। उनके तृतीय पुत्र कमलनयन जी हुए। इन्‍होंने न्‍याय के अगाध विद्वान गदाधर भट्ट के साथ नवद्वीप के हरिराम तर्कवागीश से न्‍यायशास्‍त्र का अध्‍ययन किया। काशी आकर दण्डिस्‍वामी श्रीविश्‍वेश्‍वराश्रम जी से इन्‍होंने वेदान्‍त का अध्‍ययन किया और यहीं संन्‍यास ग्रहण किया। संन्‍यास का इनका नाम ‘मधुसूदन सरस्‍वती’ पड़ा।[1]

दिगम्बर परमहंस की शिक्षा

स्‍वामी मधुसूदन सरस्‍वती को शास्‍त्रार्थ करने की धुन थी। काशी के बड़े-बड़े विद्वानों को ये अपनी प्रतिभा के बल से हरा देते थे। परंतु जिसे श्रीकृष्‍ण अपनाना चाहते हों, उसे माया का यह थोथा प्रलोभन-जाल कब तक उलझाये रख सकता है। एक दिन एक वृद्ध दिगम्‍बर परमहंस ने उनसे कहा- "स्‍वामी जी! सिद्धान्‍त की बात करते समय तो आप अपने को असंग, निर्लिप्‍त ब्रह्म कहते हैं; पर सच बताइये, क्‍या विद्वानों को जीतकर आपके मन में गर्व नहीं होता? यदि आप पराजित हो जायँ, तब भी क्‍या ऐसे ही प्रसन्‍न रह सकेंगे? यदि आपको घमंड होता है तो ब्राह्मणों को दु:खी करने, अपमानित करने का पाप भी होगा।"

कोई दूसरा होता तो मधुसूदन सरस्‍वती उसे फटकार देते, परंतु उन संत के वचनों से वे लज्जित हो गये। उनका मुख मलिन हो गया। परमहंस ने कहा- "भैया! पुस्‍तकों के इस थोथे पाण्डित्‍य में कुछ रखा नहीं है। ग्रन्‍थों की विद्या और बुद्धि के बल से किसी ने इस माया के दुस्‍तर जाल को पार नहीं किया है। प्रतिष्‍ठा तो देह की होती है और देह नश्‍वर है। यश तथा मान-बड़ाई की इच्‍छा भी एक प्रकार का शरीर का मोह ही है। तुम श्रीकृष्‍ण की शरण लो। उपासना करके हृदय से इस गर्व के मैल को दूर कर दो। सच्‍चा आनन्‍द तो तुम्‍हें आनन्‍दकन्‍द श्री वृन्‍दावनचन्‍द्र के चरणों में ही मिलेगा।"

श्यामसुंदर के दर्शन

मधुसूदन सरस्वती जी ने उन महात्‍मा के चरण पकड़ लिये। दयालु संत ने श्रीकृष्ण मंत्र देकर उपासना तथा ध्‍यान की विधि बतायी और चले गये। मधुसूदन सरस्‍वती ने तीन महीने तक उपासना की। जब उनको इस अवधि में कुछ लाभ न जान पड़ा, तब काशी छोड़कर ये घूमने निकल पड़े। कपिलधारा के पास वही संत इन्‍हें फिर मिले। उन्‍होंने कहा- "स्‍वामी जी! लोग तो भगवत्‍प्राप्ति के लिये अनेक जन्‍मों तक साधन, भजन, तप करते हैं और फिर भी बड़ी कठिनता से उन्‍हें भगवान के दर्शन हो पाते हैं; पर आप तो तीन ही महीने में घबरा गये।" अब अपनी भूल का स्‍वामी जी को पता लगा। ये गुरुदेव के चरणों पर गिर पड़े। काशी लौटकर ये फिर भजन में लग गये। प्रसन्‍न होकर श्रीश्‍यामसुन्‍दर ने इन्‍हें दर्शन दिये।

रचनाएँ

'अद्वैतसिद्धि', 'सिद्धान्‍तबिन्‍दु', 'वेदान्‍तकल्‍पलतिका', 'अद्वैतरत्‍न-रक्षण', 'प्रस्‍थानभेद' के लेखक इन प्रकाण्‍ड नैयायिक तथा वेदान्‍त के विद्वान ने भक्ति रसायन, गीता की ‘गूढार्थदीपिका’ नामक व्‍याख्‍या और श्रीमद्भागवत की व्‍याख्‍या लिखी।

  • मधुसूदन सरस्वती कहते हैं- "यह ठीक है कि अद्वैत ज्ञान के मार्ग पर चलने वाले मुमुक्षु मेरी उपासना करते हैं; यह भी ठीक है कि आत्‍मतत्त्व का ज्ञान प्राप्‍त करके मैं स्‍वाराज्‍य के सिंहासन पर आरूढ़ हो चुका हूँ; किंतु क्‍या करूँ, एक कोई गोपकुमारियों का प्रेमी शठ है, उसी हरि ने बलपूर्वक मुझे अपना दास बना लिया है।"

अद्वैतवीथीपथिकैरुपास्‍या: स्‍वाराज्‍यसिंहासनलब्‍धदीक्षा:।
शठेन केनापि वयं हठेन दासीकृता गोपवधूविटेन।।

ध्‍यानाभ्‍यासवशीकृतेन मनसा तन्निर्गुणं निष्क्रियं
ज्‍योति: किंचन योगिनो यदि परं पश्‍यन्ति पश्‍यन्‍तु ते।
अस्‍माकं तु तदेव लोचनचमत्‍काराय भूयाच्चिरं
कालिन्‍दीपुलिनोदरे किमपि यन्‍नीलं महो धावति।।
वंशीविभूषितकरान्‍नवनीरदाभात्
पीताम्‍बरादरुणबिम्‍बफलाधरोष्‍ठात्
पूर्णेन्‍दुसुन्‍दरमुखादरविन्‍दनेत्रात्
कृष्‍णात्‍परं किमपि तत्त्वमहं न जाने।।[2]


प्रमाणतोऽपि निर्णीतं कृष्‍णमाहात्‍म्‍यमद्भुतम्।
न शक्‍नुवन्ति ये सोढुं ते मूढा निरयं गता:।।[3]

अर्थात "ध्‍यान के अभ्‍यास से जिनका चित्त वश में हो गया है, वे योगी यदि उस निर्गुण और निष्क्रिय परम ज्‍योति को देखते हैं तो देखा करें। हमारे नेत्रों को तो यमुना पुलिनविहारी नीले तेजवाला साँवारा ही चिरकाल तक सुख पहुँचाता रहे।' ‘जिसके हाथों में वंशी सुशोभित है, जो नव-नील-नीरद-सुन्‍दर है, पीताम्‍बर पहने हैं, जिसके होठ बिम्‍बफल के समान लाल-लाल हैं, जिसका मुखमण्‍डल पूर्ण चन्‍द्र के सदृश और जिसके नेत्र कमलवत हैं, उस श्रीकृष्ण से परे कोई तत्‍व हो तो मैं उसे नहीं जानता।' 'प्रमाणों से निर्णय दिये हुए श्रीकृष्‍ण के अदभुत माहात्‍म्‍य को जो मूढ़ नहीं सह सकते, वे नरकगामी होंगे।"[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 559
  2. मधुसूदनी गीताटी. तेरहवें अध्‍याय के प्रारम्‍भ में
  3. म. गी. पंद्रहवें अध्‍याय के अन्त में

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