मत समझना तुम कभी यह -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा माधव लीला माधुरी

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राग सोहनी - ताल दादरा


मत समझना तुम कभी यह, मैं तुम्हें हूँ छोड़ आया।
नित्य आत्मा मिल रही है, कहीं भी यह रहे काया॥
नित्य अनुभव हो रहा है, हृदयमें है रूप छाया।
एक पलको भी कभी हटता न वह बलसे हटाया॥
हृदयके प्रत्येक स्तरमें, देहके हर रोममें नित।
स्पर्श मधुमय हो रहा है दे रहा है, सुख अपरिमित॥
इह-परत्र सुमिलन ही, बस, हो चुका नित सत्य निश्चित।
विलग होना है कभी सम्भव नहीं, अब यही सुविहित॥
नित्य नव अनुराग, नित नव रस, विमल आनन्द नित नव।
हो रहे सब एक मिलकर मुदित आभ्यन्तरिक अवयव॥
प्रेम-मिलन वियोग-विरहित, नहीं तनिक विछोह त्रुटि-लव।
सूक्ष्म अणु-‌अणुमें सदा ही, सर्वथा आनन्द-‌अनुभव॥
पाञ्चभौतिक देह नश्वरका मिलन-‌अमिलन सदृश है।
क्योंकि दुष्परिणाम उसका एकमात्र वियोग-विष है॥
आत्म-मिलन अबाध अविनाशी मधुरतम परम रस है।
सदा लहराता अमृत-सागर वहाँ शुचि एकरस है॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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