भृगुवंशी विपुल द्वारा योगबल से गुरुपत्नी की रक्षा

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 40 में भृगुवंशी विपुल द्वारा योगबल से गुरुपत्नी की रक्षा का वर्णन हुआ है।[1]-

भीष्‍म का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्‍म जी ने कहा- महाबाहो! कुरुनन्‍दन! ऐसी ही बात है। नरेश्‍वर! नारियों के सम्‍बन्‍ध में तुम जो कुछ कह रहे हो, उसमें तनिक भी मिथ्‍या नहीं है। इस विषय में मैं तुम्‍हें एक प्राचीन इतिहास बताऊँगा कि पूर्वकाल में महात्‍मा विपुल ने किस प्रकार एक स्‍त्री (गुरुपत्‍नी)-की रक्षा की थी।

युवतियों की सृष्टि का उद्देश्य

भरतश्रेष्‍ठ! नरेश्‍वर! ब्रह्मा ने जिस प्रकार और जिस उद्देश्य से युवतियों की सृष्टि की है, वह सब मैं तुम्‍हें बताऊँगा। बेटा! स्त्रियों से बढ़कर पापिष्‍ठ दूसरा कोई नहीं है। यौवन-मद से उन्‍मत रहने वाली स्त्रियाँ वास्‍तव में प्रज्‍वलित अग्नि के समान हैं। प्रभो! वे मयदानव की रची हुई माया हैंं। शत्रुदमन! तब वे देवता ब्रह्मा जी के पास गये और उनसे अपने मन की बात निवदेन करके मुँह नीचे किये चुप-चाप बैठ गये। उन देवताओं के मन की बात जानकर भगवान ब्रह्मा ने मनुष्‍यों को मोह में डालने के लिये कृत्‍यारूप नारियों की सृष्टि की। कुन्‍तीनन्‍दन! सृष्टि के प्रारम्‍भ में यहाँ सब स्त्रियाँ पतिव्रता ही थीं। कृत्‍यारूप दुष्‍ट स्त्रियाँ तो प्रजापति की इस नूतन सृष्टि से ही उत्‍पन्‍न हुई हैं। प्रजापति ने उन्‍हें उनकी इच्‍छा के अनुसार कामभाव प्रदान किया। वे मतवाली युवतियाँ कामलोलुप होकर पुरुषों को सदा बाधा देती रहती हैं। देवेश्‍वर भगवान ब्रह्मा ने काम की सहायता के लिये क्रोध को उत्‍पन्‍न किया। इन्‍हीं काम और क्रोध के वशीभूत होकर स्‍त्री और पुरुष रूप सारी प्रजा आसक्‍त होती है। ब्राह्मण, गुरु, महागुरु, और राजा-इन सबको स्‍त्री के क्षणिक संग से कामजनित यातना सहनी पड़ती है। जिनका मन कहीं आसक्‍त नहीं है, जिन्‍होंने ब्रह्मचर्य के पालनपूर्वक अपने अन्‍त:करण को निर्मल बना लिया है तथा जो तपस्‍या, इन्द्रिय संयम और ध्‍यान-पूजन में संलग्‍न हैं, उन्‍हीं की उत्तम शुद्धि होती है। स्त्रियों के लिये किन्‍हीं वैदिक कर्मों के करने का विधान नहीं है। यही धर्मशास्‍त्र की व्‍यवस्‍था है। स्त्रियाँ इन्द्रियशून्‍य हैं अर्थात वे अपनी इन्द्रियों को वश में रखने में असमर्थ हैं। ऐसा उनके विषय में श्रुति का कथन है। प्रजापति ने स्त्रियों को शय्‍या, आसन, अलंकार, अन्‍न, पान, अनार्यता, दुर्वचन, प्रियता तथा रति प्रदान की है। तात! लोकस्रष्टा ब्रह्मा-जैसा पुरुष भी स्त्रियों की किसी प्रकार रक्षा नहीं कर सकता, फिर साधारण पुरुषों की तो बात ही क्‍या? वाणी के द्वारा एवं वध और बन्‍धन के द्वारा रोककर अथवा नाना प्रकार के क्‍लेश देकर भी स्त्रियों की रक्षा नहीं की जा सकती; क्‍योंकि वे सदा असंयमशील होती हैं। पुरुषसिंह! पूर्वकाल में मैंने यह सुना था कि प्राचीन काल में महात्‍मा विपुल ने अपनी गुरुपत्‍नी की रक्षा की थी। कैसे की? यह मैं तुम्‍हें बता रहा हूँ। पहले की बात है, देव शर्मा नाम के एक महाभाग्‍यशाली ऋषि थे। उनकी रुचि नामवाली एक स्‍त्री थी जो इस पृथ्‍वी पर अद्वितीय सुन्‍दरी थी। उसका रूप देखकर देवता, गन्‍धर्व और दानव भी मतवाले हो जाते थे। राजेन्‍द्र! वृत्रासुर का वध करने वाले पाकशासन इन्‍द्र उसी स्‍त्री पर विशेष रूप से आसक्‍त थे। महामुनि देव शर्मा नारियों के चरित्र को जानते थे; अत: वे यथाशक्ति उत्‍साहपूर्वक उसकी रक्षा करते थे।। वे यह भी जानते थे कि इन्‍द्र बड़ा ही पर-स्‍त्रीलम्‍पट है, इसलिये वे अपनी स्‍त्री की उनसे यत्‍नपूर्वक रक्षा करते थे।

तात! एक समय ऋषि ने यज्ञ करने का विचार किया। उस समय वे यह सोचने लगे कि ‘यदि मैं यज्ञ में लग जाऊँ तो मेरी स्‍त्री की रक्षा कैसे होगी।' फिर उन महातपस्‍वी ने मन-ही-मन उसकी रक्षा का उपाय सोचकर अपने प्रिय शिष्‍य भृगुवंशी विपुल को बुलाकर कहा। देव शर्मा बोले- वत्‍स! मै यज्ञ करने के लिये जाऊँगा। तुम मेरी इस पत्‍नी रुचि की यत्‍नपूर्वक रक्षा करना; क्‍योंकि देवराज इन्‍द्र सदा इसको प्राप्‍त करने की चेष्‍टा में लगा रहता है। भृगुश्रेष्‍ठ! तुम्‍हें इन्‍द्र की ओर से सदा सावधान रहना चाहिये; क्‍योंकि वह अनेक प्रकार के रूप धारण करता है। भीष्‍म जी कहते हैं- राजन! गुरु के ऐसा कहने पर अग्नि और सूर्य के समान तेजस्‍वी, जितेन्द्रिय तथा सदा ही कठोर तप में लगे रहने वाले धर्मज्ञ एवं सत्‍यवादी विपुल ने ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्‍वीकार कर ली। महाराज! फिर जब गुरु जी प्रस्‍थान करने लगे तब उसने पुन: इस प्रकार पूछा। विपुल ने पूछा- मुने! इन्‍द्र जब आता है तब उसके कौन-कौन-से रूप होते हैं तथा उस समय उसका शरीर और तेज कैसा होता है? यह मुझे स्‍पष्‍ट रूप से बताने की कृपा करें।

इंद्र की माया का वर्णन

भीष्‍म जी कहते हैं- भरतनन्‍दन! तदनन्‍तर भगवान देव शर्मा ने महात्‍मा विपुल से इन्‍द्र की माया को यर्थाथ रूप से बताना आरम्‍भ किया। देव शर्मा ने कहा- ब्रह्मर्षे! भगवान पाकशासन इन्‍द्र बहुत-सी मायाओं के जानकार हैं। वे बारंबार बहुत-से रूप बदलते रहते हैं। बेटा! वे कभी तो मस्‍तक पर किरीट-मुकुट, कानों में कुण्‍डल तथा हाथों में वज्र एवं धनुष धारण किये आते हैं और कभी एक ही मुहुर्त में चाण्‍डाल के समान दिखायी देते हैं, फिर कभी शिखा, जटा और चीर वस्‍त्र धारण करने वाले ऋषि बन जाते हैं। कभी विशाल एवं हष्‍ट-पुष्‍ट शरीर धारण करते हैं तो कभी दुर्बल शरीर में चिथड़े लपेटे दिखायी देते हैं। कभी गोरे, कभी सांवले और कभी काले रंग के रूप बदलते रहते हैं। वे एक ही क्षण में कुरूप और दूसरे ही क्षण में रूपवान हो जाते हैं। कभी जवान और कभी बूढ़े बन जाते हैं। कभी ब्राह्मण बनकर जाते हैं तो कभी क्षत्रिय, वैश्‍य और शूद्र का रूप बना लेते हैं। वे इन्‍द्र कभी अनुलोम संकर का रूप धारण करते हैं तो कभी विलोम संकर का। वे तोते, कौए, हंस, और कोयल के रूप में भी दिखायी देते हैं। सिंह, व्‍याघ्र और हाथी के भी रूप बारंबार धारण करते हैं। देवताओं, दैत्‍यों और राजाओं के शरीर भी धारण कर लेते हैं। वे कभी हष्‍ट-पुष्‍ट कभी वातरोग से भग्‍न शरीर वाले और कभी पक्षी बन जाते हैं। कभी विकृत वेश बना लेते हैं। फिर कभी चौपाया (पशु), कभी बहुरूपिया और कभी गँवार बन जाते हैं। वे मक्‍खी और मच्‍छर आदि के रूप भी धारण करते हैं। विपुल! कोई भी उन्‍हें पकड़ नहीं सकता। तात! औरों की तो बात ही क्‍या है? जिन्‍होंने इस संसार को बनाया है वे विधाता भी उन्‍हें अपने काबू में नहीं कर सकते। अन्‍तर्धान हो जाने पर इन्‍द्र केवल ज्ञानदृष्टि से दिखायी देते हैं। फिर वे वायु रूप होकर तुरंत ही देवराज के रूप में प्रकट हो जाते हैं। इस तरह पाकशासन इन्‍द्र सदा नये-नये रूप धारण करता और बदलता रहता है। भृगुश्रेष्‍ठ विपुल! इसलिये तुम यत्‍नपूर्वक इस तनुमध्‍यमा रुचि की रक्षा करना जिससे दुरात्‍मा देवराज इन्‍द्र यज्ञ में रखे हुए हविष्‍य को चाटने की इच्‍छा वाले कुत्ते की भाँति मेरी पत्‍नी रुचि का स्‍पर्श न कर सके। भरतश्रेष्‍ठ! ऐसा कहकर महाभाग देव शर्मा मुनि यज्ञ करने के लिये चले गये।[2]

विपुल द्वारा गुरुपत्‍नी की रक्षा के लिए विचार करना

उन्‍होने मन-ही-मन सोचा, ‘मैं गुरुपत्‍नी की रक्षा के लिये क्‍या कर सकता हूँ, क्‍योंकि वह देवराज इन्‍द्र मायावी होने के साथ ही बड़ा दुर्धर्ष और पराक्रमी है। ‘कुटी या आश्रम के दरवाजों को बंद करके भी पाकशासन इन्‍द्र का आना नहीं रोका जा सकता; क्‍योंकि वे कई प्रकार के रूप धारण करते हैं। सम्भव है, इन्‍द्र वायु का रूप धारण करके आये और गुरुपत्‍नी को दूषित कर डाले, इसलिये आज मैं रुचि के शरीर में प्रवेश करके रहूँगा। ‘अथवा पुरुषार्थ के द्वारा मैं इसकी रक्षा नहीं कर सकता; क्‍योंकि ऐश्‍वर्य वाला पाकशासन इन्‍द्र बहुरूपिया सुने जाते हैं। अत: योगबल का आश्रय लेकर ही मैं इन्‍द्र से इसकी रक्षा करूँगा। ‘मैं गुरुपत्‍नी की रक्षा करने के लिये अपने सम्‍पूर्ण अंगों से इसके सम्‍पूर्ण अंगों में समा जाऊँगा।' यदि आज मेरे गुरु जी अपनी इस पत्‍नी को किसी पर-पुरुष द्वारा दूषित हुई देख लेंगे तो कुपित होकर मुझे निस्‍संदेह शाप दे देंगे; क्‍योंकि वे महातपस्‍वी गुरु दिव्‍य ज्ञान से सम्‍पन्‍न हैं। ‘दूसरी युवतियों की तरह इस गुरुपत्नि की भी मनुष्‍यों द्वारा रक्षा नहीं की जा सकती; क्‍योंकि देवराज इन्‍द्र बड़े मायावी हैं।' अहो! मैं बड़ी संशयजनित अवस्‍था में पड़ गया। ‘यहाँ गुरु ने जो आज्ञा दी है, उसका पालन मुझे अवश्‍य करना चाहिये। यदि मैं ऐसा कर सका तो मेरे द्वारा यह एक आश्‍चर्यजनक कार्य सम्‍पन्‍न होगा।' ‘अत: मुझे गुरुपत्‍नी के शरीर में योगबल से प्रवेश करना चाहिये। जिस प्रकार कमल के पत्ते पर पड़ी हुई जल की बूँद उस पर निर्लिप्‍त भाव से स्थिर रहती है उसी प्रकार मैं भी अनासक्‍त भाव से गुरुपत्‍नी के भीतर निवास करूँगा। ‘मैं रजोगुण से मुक्‍त हूँ, अत: मेरे द्वारा कोई अपराध नहीं हो सकता, जैसे राह चलने वाला बटोही कभी किसी सूनी धर्मशाला में ठहर जाता है उसी प्रकार आज मैं सावधान होकर गुरुपत्‍नी के शरीर में निवास करुँगा। 'इसी तरह इसके शरीर में मेरा निवास हो सकेगा।' पृथ्‍वीनाथ! इस तरह धर्म पर दृष्टि डाल, सम्‍पूर्ण वेद-शास्‍त्रों पर विचार करके अपनी तथा गुरु की प्रचुर तपस्‍या को दृष्टि में रखते हुए भृगुवंशी विपुल ने गुरुपत्‍नी की रक्षा के लिये अपने मन से उपर्युक्‍त उपाय ही निश्चित किया और इसके लिये जो महान प्रयत्‍न किया,वह बताता हूँ, सुनो- ‘महातपस्‍वी विपुल गुरुपत्‍नी के पास बैठ गये और पास ही बैठी हुई निर्दोष अंगों वाली उस रुचि को अनेक प्रकार की कथा-वार्ता सुनाकर अपनी बातों में लुभाने लगे।' ‘फिर अपने दोनों नेत्रों को उन्‍होंने उसके नेत्रों की ओर लगाया और अपने नेत्रों की किरणों को उसके नेत्रों की किरणों के साथ जोड़ दिया। फिर उसी मार्ग से आकाश में प्रविष्‍ट होने वाली वायु की भाँति रुचि के शरीर में प्रवेश किया।' ‘वे लक्षणों से लक्ष्‍ाणों में और मुख के द्वारा मुख में प्रविष्‍ट हो कोई चेष्‍टा न करते हुए स्थिर भाव से स्थित हो गये। उस समय अन्‍तर्हित हुए विपुल मुनि छाया के समान प्रतीत होते थे।' ‘विपुल गुरुपत्‍नी के शरीर को स्‍तम्भित करके उसकी रक्षा में संलग्‍न हो वहीं निवास करने लगे। परंतु रुचि को अपने शरीर में उनके आने का पता न चला। ‘राजन! जब तक महात्‍मा विपुल के गुरु यज्ञ पूरा करके अपने घर नहीं लौटे तब तक विपुल इसी प्रकार अपनी गुरुपत्‍नी की रक्षा करते रहे।'[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 40 श्लोक 1-19
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 40 श्लोक 20-40
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 40 श्लोक 41-60

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आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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