भीष्म द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों की प्रशंसा

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 34 में भीष्म द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों की प्रशंसा का वर्णन हुआ है[1]-

भीष्म का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्‍म कहते हैं- युधिष्ठिर! ब्राह्मणों का सदा ही भलीभाँति पूजन करना चाहिये। चन्‍द्रमा इनके राजा हैं। ये मनुष्‍य को सुख और दु:ख देने में समर्थ हैं। राजाओं को चाहिये कि वे उत्तम भोग, आभूषण तथा पूछकर प्रस्‍तुत किये गये दूसरे मनोवांछित पदार्थ देकर नमस्‍कार आदि के द्वारा सदा ब्राह्मणों की पूजा करें और पिता के समान उनके पालन-पोषण का ध्‍यान रखें। तभी इन ब्राह्मणों से राष्‍ट्र में शांति रह सकती है। ठीक उसी तरह, जैसे इन्‍द्र से वृष्टि प्राप्‍त होने पर समस्‍त प्राणियों को सुख-शांति मिलती है। सबको यह इच्‍छा करनी चाहिये कि राष्‍ट्र में ब्रह्म तेज से सम्‍प्‍ान्‍न पवित्र ब्राह्मण उत्‍पन्‍न हो तथा शत्रुओं को संताप देने वाले महारथी क्षत्रिय की उत्‍पति हो।

श्रेष्ठ ब्राह्मणों की प्रशंसा

राजन! विशुद्ध जाति से युक्‍त तथा तीक्ष्‍ण व्रत का पालन करने वाले धर्मज्ञ ब्राह्मण को अपने घर में ठहराना चाहिये। इससे बढ़कर दूसरा कोई पुण्‍यकर्म नहीं है। ब्राह्मणों को जो हविष्‍य अर्पित किया जाता है, उसे देवता ग्रहण करते हैं, क्‍योंकि ब्राह्मण समस्‍त प्राणियों के पिता हैं। इनसे बढ़कर दूसरा कोई प्राणी नहीं है। सूर्य, चन्‍द्रमा, वायु, जल, पृथ्‍वी, आकाश और दिशा- इन सबके अधिष्‍ठाता देवता सदा ब्राह्मण के शरीर में प्रवेश करके अन्‍न भोजन करते हैं। ब्राह्मण जिसका अन्‍न नहीं खाते उसके अन्‍न को पितर भी नहीं स्‍वीकार करते। उस ब्राह्मण द्रोही की पापात्‍मा का अन्‍न देवता भी नहीं ग्रहण करते हैं। राजन! यदि ब्राह्मण संतुष्‍ट हो जायें तो पितर तथा देवता भी सदा प्रसन्‍न रहते हैं। इसमें कोई अन्‍यथा विचार नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार वे यजमान भी प्रसन्‍न होते हैं जिनकी दी हुई हवि ब्राह्मणों के उपयोग में आती हैं। वे मरने के बाद नष्‍ट नहीं होते हैं, उत्तम गति को प्राप्‍त हो जाते हैं। जिससे समस्‍त प्रजा उत्‍पन्‍न होती है, वह यज्ञ आदि कर्म ब्राह्मणों से ही उत्‍पन्‍न होता है। जीव जहाँ से उत्‍पन्‍न होता है और मृत्‍यु के पश्‍चात जहाँ जाता है, उस तत्‍व को, स्‍वर्ग और नरक के मार्ग को तथा भूत, वर्तमान और भविष्‍य को ब्राह्मण ही जानता है। ब्राह्मण मनुष्‍यों में श्रेष्‍ठ हैं। भरतश्रेष्‍ठ! जो अपने धर्म को जानता है और उसका पालन करता है, वही सच्‍चा ब्राह्मण है। जो लोग ब्राह्मणों का अनुसरण करते हैं उनकी कभी पराजय नहीं होती तथा मृत्‍यु के पश्‍चात उनका पतन नहीं होता। वे अपमान को भी नहीं प्राप्‍त होते हैं। ब्राह्मण के मुख से जो वाणी निकलती है, उसे जो शिरोधार्य करते हैं, वे सम्‍पूर्ण भूतों को आत्‍मभाव से देखने वाले महात्‍मा कभी पराभव को नहीं प्राप्‍त होते हैं। अपने तेज और बल से तपते हुए क्षत्रियों के तेज और बल ब्राह्मणों के सामने आने पर ही शान्‍त होते हैं। भरतश्रेष्‍ठ! भृगुवंशी ब्राह्मणों ने ताल जंघो को, अंगिरा की संतानों ने नीप वंशी राजाओं को तथा भरद्वाज ने हैहयों को और इलाके पुत्रों को पराजित किया था। क्षत्रियों के पास अनेक प्रकार के विचित्र आयुध थे तो भी कृष्‍ण मृगचर्म धारण करने वाले इन ब्राह्मणों ने उन्‍हें हरा दिया। क्षत्रिय को चाहिये कि ब्राह्मणों को जलपूर्ण कलशदान करके पारलौकिक कार्य आरम्‍भ करे। संसार में जो कुछ कहा-सुना या पढ़ा जाता है वह सब काठ में छिपी हुई आग की तरह ब्राह्मणों में ही स्थित है। भरतश्रेष्‍ठ! इस विषय में जानकार लोग भगवान श्रीकृष्‍ण और पृथ्‍वी के संवाद रूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं।

श्रीकृष्‍ण ने पूछा- शुभे! तुम सम्‍पूर्ण भूतों की माता हो, इसलिये मैं तुम से एक संदेह पूछ रहा हूँ। गृहस्‍थ मनुष्‍य किस कर्म के अनुष्‍ठान से अपने पाप का नाश कर सकता है। पृथ्‍वी ने कहा- भगवन! इसके लिये मनुष्‍य को ब्राह्मणों की ही सेवा करनी चाहिये। यही सबसे पवित्र और उत्तम कार्य है। ब्राह्मणों की सेवा करने वाले पुरुष का समस्‍त रजोगुण नष्‍ट हो जाता है। इसी से ऐश्‍वर्य, इसी से कीर्ति और इसी से उत्तम बुद्धि भी प्राप्‍त होती है। सदा सब प्रकार की समृद्धि के लिये नारद जी ने मुझसे कहा कि शत्रुओं को संताप देने वाले महारथी क्षत्रिय के उत्‍पन्‍न होने की कामना करनी चाहिये। उत्तम जाति से सम्‍प्‍ान्‍न, धर्मज्ञ, दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करने वाले तथा पवित्र ब्राह्मण के उत्‍पन्‍न होने की भी इच्‍छा रखनी चाहिये। छोटे-बड़े सब लोगों से जो बड़े हैं, उनसे भी ब्राह्मण बड़े माने गये हैं। ऐसे ब्राह्मण जिसकी प्रशंसा करते हैं उस मनुष्‍य की वृद्धि होती है और जो ब्राह्मणों की निन्‍दा करता है वह शीघ्र ही पराभव को प्राप्‍त होता है। जैसे महासागर में फेंका हुआ कच्‍ची मिट्टी का ढेला तुरंत गल जाता है, उसी प्रकार ब्राह्मणों का संग प्राप्‍त होते ही सारा दुष्‍कर्म नष्‍ट हो जाता है। माधव! देखिये, ब्राह्मणों का कैसा प्रभाव है, उन्‍होंने चन्‍द्रमा में कलंक लगा दिया, समुद्र का पानी खारा बना दिया तथा देवराज इन्‍द्र के शरीर में एक हजार भग के चिहन उत्‍पन्‍न कर दिये और फिर उन्‍हीं के प्रभाव से वे भग नेत्र के रूप में परिणत हो गये; जिनके कारण शतक्रतु इन्‍द्र ‘सहस्‍त्राक्ष’ नाम से प्रसिद्ध हुए। मधुसुदन! जो कीर्ति, ऐश्‍वर्य और उत्तम लोकों को प्राप्‍त करना चाहता हो, वह मन को वश में रखने वाला पवित्र ब्राह्मणों की आज्ञा के अधीन रहे। भीष्‍म जी कहते हैं- कुरुनन्‍दन! पृथ्‍वी के ये वचन सुनकर भगवान मधुसुदन ने कहा- ‘वाह-वाह, तुमने बहुत अच्‍छी बात बतायी।' ऐसा कहकर उन्‍होंने भूदेवी की भूरि-‍भूरि प्रशंसा की। कुन्‍तीनन्‍दन! इस दृष्‍टान्‍त एवं ब्राह्मण-माहात्‍म्‍य को सुनकर तुम सदा पवित्रभाव से श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों का पूजन करते रहो। इससे तुम कल्‍याण के भागी होओगे।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 34 श्लोक 1-19
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 34 श्लोक 20-31

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दान-धर्म-पर्व
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आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की 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महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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