- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 13 में भीष्म का शरीर, वाणी और मन से होने वाले पापों के परित्याग का उपदेश देने का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
- 1 युधिष्ठिर का प्रस्न पूछना
- 2 भीष्म का संवाद
- 3 भीष्म का शरीर, वाणी और मन से होने वाले पापों के परित्याग का उपदेश
- 4 ब्रह्मा का संवाद
- 5 गरुड़ को श्री हरि के दर्शन प्राप्त होना
- 6 श्री हरि एवं गरुड़ का संवाद
- 7 भगवान नारायण का वर्णन
- 8 श्रीहरि द्वारा गरुड़ को सांत्वना देना
- 9 गरुड़ द्वारा प्रस्न करना
- 10 श्रीकृष्ण द्वारा गूढ़ रहस्य बताना
- 11 निष्काम भाव से किये गये कार्यों का वर्णन
- 12 श्री हरि के यथार्थ स्वरूप के दर्शन प्राप्त करने का रहस्य
- 13 ऋषियों का संवाद
- 14 टीका टिप्पणी और संदर्भ
- 15 संबंधित लेख
युधिष्ठिर का प्रस्न पूछना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! लोकयात्रा का भली-भाँति निर्वाह करने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को क्या करना चाहिए? कैसा स्वभाव बनाकर किस प्रकार लोक में जीवन बिताना चाहिए?
भीष्म का संवाद
भीष्म जी ने कहा- राजन! शरीर से तीन प्रकार के कर्म, वाणी से चार प्रकार के कर्म और मन से भी तीन प्रकार के कर्म- इस तरह कुल दस तरह के कर्मों का त्याग कर दे। दूसरों के प्राणनाश करना, चोरी करना और परायी स्त्री से संसर्ग रखना- ये तीन शरीर से होने वाले पाप हैं। इन सबका परित्याग कर देना उचित है। मुंह से बुरी बोंत निकालना, कठोर बोलना, चुगली खाना और झूठ बोलना- ये चार वाणी से होने वाले पाप हैं। राजेन्द्र! इन्हें न तो कभी जबान पर लाना चाहिए और न मन में ही सोचना चाहिए। दूसरे के धन को लेने का उपाय न सोचना, समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री भाव रखना और कर्मों का फल अवश्य मिलता है, इस बात पर विश्वास रखना- ये तीन मन से आचरण करने योग्य कार्य हैं। इन्हें सदा करना चाहिए। (इनके विपरीत दूसरों के धन का लालच करना, समस्त प्राणियों से वैर रखना और कर्मों के फल पर विश्वास न करना- ये तीन मानसिक पाप हैं- इन से सदा बचे रहना चाहिए)।
इसलिये मनुष्य का कर्तव्य है कि वह मन, वाणी या शरीर से कभी अशुभ कर्म न करें, क्योंकि वह शुभ या अशुभ जैसा कर्म करता है, उसका वैसा ही फल उसे भोगना पड़ता है। एक समय अमृत की उत्पति हो जाने पर उसकी प्राप्ति के लिये देवताओं का असुरों के साथ साठ हजार वर्षों तक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्राम के नाम से प्रसिद्ध है। उस युद्ध में अत्यंत भयंकर दैत्यों एवं बड़े-बड़े असुरों की मार खाकर देवता किसी रक्षक को नही पाते थे। दैत्यों द्वारा सताये जाने वाले देवता दु:खी होकर अपने लिये आश्रय ढूंढ़ते हुए देवदेवेश्वर महाज्ञानी ब्रह्मा जी की शरीर में गये। नरेश्वर! तदनन्तर देवताओं सहित कमल योनि ब्रह्मा जी हाथ जोड़कर रोग-शोक से रहित भगवान नारायण की स्तुति करने लगे। ब्रह्मा जी बोले- प्रभो! आपके रूप का चिन्तन करने से, नामों स्मरण और जप से, पूजन से तथा तप और योग आदि से मनीषी पुरुष कल्याण को प्राप्त होते हैं।
भक्तवत्सल! कमलनयन! परमेश्वर! पापहारी परमात्मन्! निर्विकार! आदिपुरुष! नारायण! आपको नमस्कार है। सम्पूर्ण लोकों के आदिकारण! सर्वात्मन! अमित पराक्रमी नारायण! सम्पूर्ण भूत और भविष्य के स्वामी! सर्व भूतमहेश्वर! आपको नमस्कार है। प्रभो! आप देवताओं के भी देवता और समस्त विद्याओं कें परम आश्रय हैं। जगत के जितने भी बीज हैं, उन सबका संग्रह करने वाले आप ही हैं। आप ही जगत के परम कारण हैं। वीर! ये देवता, दानव, दैत्य आदि से अत्यंत पीडित हो रहे हैं। आप इनकी रक्षा कीजिये। विजयशीलों में सबसे श्रेष्ठ नारायणदेव! आप लोकों, लोकपालों तथा ऋषियों का संरक्षण कीजिये। सम्पूर्ण अंगों और उपनिषदों सहित वेद, उनके रहस्य, उंकार और वषटकार आप ही को उत्तम यज्ञ का स्वरूप बताते हैं।
भीष्म का शरीर, वाणी और मन से होने वाले पापों के परित्याग का उपदेश
आप पवित्रों के भी पवित्र, मंगलों के भी मंगल, तपस्वियों के तप और देवताओं के भी देवता है। भीष्म जी कहते हैं- राजन! इस प्रकार ब्रह्म सहित देवताओं ने एकत्र होकर ऋक्, साम और यजुर्वेद के मंत्रों द्वारा भगवान विष्णु की स्तुति की। तब मेघ के समान गंभीर स्वर में आकाशवाणी हुई-नदेवताओं! तुम युद्ध में मेरे साथ रहकर दानवों को अवश्य जीत लोगे'। तत्पश्चात परस्पर युद्ध करने वाले देवताओं ओर दानवों के बीच शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले महातेजस्वी भगवान विष्णु प्रकट हुए। उन्होनें गरुड़ की पीठ पर बैठकर तेज से विरोधियों को दग्ध करते हुए -से अपनी भुजाओं के तेज और वैभव से समस्त दानवों का संहार कर डाला। महाराज! समरभूमि में दैत्यों और दानवों के प्रमुख वीर भगवान से टक्क्र लेकर वैसे ही नष्ट हो गये, जैसे पतंगे आग में कूदकर अपने प्राण दे देते हैं। परम बुद्धिमान श्रीहरि समस्त असुरों और दानवों को परास्त करके देवताओं के देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये। अनन्त तेजस्वी श्री विष्णु देव को अदृश्य हुआ देख आश्चर्य चकित नेत्र वाले देवता ब्रह्मा जी से इस प्रकार बोले -देवताओं ने पूछा- सर्वलोकेश्वर! सम्पूर्ण जगत के पितामह! भगवन! यह अत्यन्त अद्भुत वृतान्त हमें बताने की कृपा करें। कौन दिव्यात्मा पुरुष हमारी रक्षा करके चुपचाप जैसे आया था, वैसे लौट गया? यह हमें बताने की कृपा करें।
भीष्म जी कहते हैं- प्रभो! सम्पूर्ण देवताओं के ऐसा कहने पर वचन के तात्पर्य को समझाने वाले ब्रह्मा जी ने भगवान पद्यनाभ (विष्णु)- के पूर्वरूप के विषय में इस प्रकार कहा- ब्रह्मा जी बोले- देवताओं! ये भगवान सम्पूर्ण भुवनों के अधीश्वर हैं। इन्हें जगत का कोई भी प्राणी यथार्थ रूप से नहीं जानता। गुणवानों में श्रेष्ठ निर्गुण परमात्मा की महिमा का पूर्ण कोई त: वर्णन नहीं कर सकता। देवगण! इस विषय मैं तुम लोगों को गरुड़ और ऋषियों का संवादरूप प्राचीन इतिहास बता रहा हूँ। पूर्वकाल की बात है, हिमालय के शिखर पर ब्रह्मर्षि और सिद्धगण जगदीश्वर श्रीहरि की शरण ले उन्हीं के विषय में नाना प्रकार की बातें कर रहे थे। उनकी बातचीत पूरी होते ही चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान विष्णु के वाहन महातेजस्वी पक्षिराज गरुड़ वहाँ आ पहुँचे। उन ऋषियों के पास पहुँचकर महापराक्रमी गरुड़ नीचे उतर पड़े और विनय से मस्तक झुकाकर उनके समीप गये।
ऋर्षियों ने स्वागतपूर्वक वेगवानों में श्रेष्ठ महान बलवान एवें तेजस्वी गरुड़ का पूजन किया। उनसे पूजित होकर वे पृथ्वी पर बैठे। बैठ जाने पर उन महाकाय, महामना और महतेजस्वी विनतानन्दन गरुड़ से वहाँ बैठे हुए तपस्वी ऋर्षियों ने पूछा। ऋषि बोले- विनतानन्दन गरुड़! हमारे हृदय में एक प्रश्न को लेकर बड़ा कौतूहल उत्पन्न हो गया है। उसका समाधान करने वाला यहाँ आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है, अत: हम आपके द्वारा अपने उस उत्तम प्रश्न का विवेचन कराना चाहते हैं। गरुड़ बोले- वक्ताओं में श्रेष्ठ मुनीश्वरों! मेरे द्वारा किस विषय में आप प्रवचन कराना चाहते हैं? यह बताइये। आप मुझे सभी यथोचित कार्यों के लिये आज्ञा दे सकते हैं।[2]
ब्रह्मा का संवाद
ब्रह्मा जी कहते है- देवताओं! तदनन्तर उन श्रेष्ठतम ऋर्षियों ने अन्तरहित भगवान नारायण को नमस्कार करके महाबली गरुड़ से वहाँ इस प्रकार पूछना आरम्भ किया। ऋषि बोले- ‘विनतानन्दन! जिस रोक-शोक से रहित वरदायक देवाधिदेव महात्मा नारायण की आप उपासना करते हैं, उनका प्राकट्य कहाँ से हुआ? तथा वास्तव में कौन है? उनकी प्रकृति अथवा विकृति कैसी है? उनकी स्थिति कहाँ है? तथा वे नारायण देव कहाँ अपना घर बनाये हुए हैं? वे सब बातें हम लोग आपसे पूछते हैं। कश्यप कुमार! ये भगवान नारायण भक्तों के प्रिय हैं तथा भक्त भी उन्हें बहुत प्रिय हैं और आप भी उनके प्रिय एवं भक्त हैं। आपके समान दूसरा कोई उन्हें प्रिय नहीं है। उनका विग्रह इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव में आने योग्य नहीं है। वे सबके मन और नेत्रों को मानों चुराये लेते हैं। उनका आदि, मध्य और अन्त नहीं है।
हम इनके विषय में यह नहीं समझ पाते कि ये कहाँ से प्रकट हुए है? वेदों में भी विश्वात्मा कहकर इनकी महिमा का गान किया गया है, परंतु हम यह नहीं जानते कि वे तत्वभूतस्वरूप नित्य सनातन प्रभु वस्तुत: कैसे हैं? पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और अग्नि- ये पांच भूत, क्रमश: इन भूतों के गुण, भाव-अभाव, सत्व, रज, तम, सात्त्विक, राजस और तामस भाव, मन, बुद्धि और और तेज- ये वास्तव में बुद्धिगम्य हैं। तात! ये सब उनहीं श्री हरि से उत्पन्न होते हैं और वे भगवान इन सबमें व्यापकरूप में स्थित हैं। हम उनके विषय में अपनी बुद्धि के द्वारा नाना प्रकार से विचार करते हैं तथापि किसी उत्तम निश्चय पर नहीं पहुँच पाते, अत: आप यथार्थ रूप से हमें उनका तत्व बताइये। गरुड़ जी ने कहा- महात्माओं! जो स्थूलस्वरूप भगवान हैं, वे तीनों लोकों की रक्षा के लिये उसी कारण भूत अपने स्वरूप से लोगों को दृष्टि गोचर होते हैं। मैंने पूर्वकाल में श्रीवत्सचिन्ह के आश्रयभूत सनातन देव श्रीहरि के विषय में जो महान आश्चर्य की बात देखी है, वह सब बताता हूं, सुनिये। मैं या आप लोग कोई भी किसी तरह भगवान के यथार्थ स्वरूप को नहीं जान सकते। भगवान ने स्वयं ही अपने विषय में मुझ से जो कुछ जैसे कहा है, वह उसी रूप में सुनिये।
मुनिश्रेष्ठगण! मैंने देवताओं के देखते-देखते उनके रक्षायन्त्र को विदीर्ण करके अमृत के रक्षकों को खदेड़कर युद्ध में इन्द्र और मरूद्गणों सहित सम्पूर्ण देवताओं को पराजित करके शीघ्र ही अमृत का अपहरण कर लिया। मेरे उस पराक्रम को देखकर आकाशवाणी ने कहा। गरुड़ कहते हैं- ऋषिगण! आकाशवाणी की ऐसी बात सनुकर मैंने उस समय यों उतर दिया- ‘पहले मैं यह जानता चाहता हूँ कि आप कौन हैं? फिर मुझे वर दीजियेगा’। तब वक्ताओं में श्रेष्ठ वरदायक भगवान बड़े जो से हंसकर मेघ के समान गंभीर वाणी में प्रसन्नता-पूर्वक कहा- ‘समय आने पर मेरे विषय में तुम सब कुछ जान लोगो। पक्षियों में श्रेष्ठ गरुड़! मैं तुम्हें यह उत्तम वर देता हूँ कि देवता हो या दानव, कोई भी इस संसार में तुम्हारे समान पराक्रमी न होगा, तुम मेरे अच्छे वाहन हो जाओ, मेरे सखा भाव को प्राप्त होने के कारण तुम सदा दुर्जय बने रहोगे’।[3]
गरुड़ को श्री हरि के दर्शन प्राप्त होना
तब मैंने हाथ जोड़ पवित्र हो उपर्युक्त बात कहने वाले सर्वव्यापी देवाधिदेव भगवान परम पुरुष को मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा- ‘महाबाहो! आपका यह कथन ठीक है। यह सब कुछ आपकी आज्ञा के अनुसार ही होगा। आप मुझे जैसा आदेश दे रहे हैं, उसके अनुसार मैं आपका वाहन अवश्य होउंगा। आप रथ पर विराजमान होंगे, उस समय मैं आपकी ध्वजा पर स्थित रहूंगा, इसमें संशय नहीं है’। तब भगवान मुझ से ‘तथास्तु’ कहकर वे अपनी इच्छा के अनुसार चले गये। साधुशिरोमणियो! तदनन्तर उन अनिर्वचनीय देवताओं वार्तालाप करके मैं कौतूहलवश अपने पिता कश्यपजी के पास गया। पिता के पास पहुँचकर मैंने उनके चरणों में प्रणाम किया और यह सारा वृतान्त उनसे यथावत रूप से कह सुनाया। यह सुनकर मेरे पूज्यपाद पिता ने ध्यान लगाया। दो घड़ी तक ध्यान करके वे वक्ताओं में श्रेष्ठ मुनि मुझसे बोल- ‘तात! मैं धन्य हूं, भगवान की कृपा का पात्र हूं, जिसके पुत्र होकर तुमने उन महामनस्वी गुहृय परमात्मा से वार्तालाप कर लिया। मैंने अनन्य भाव से मन को एकाग्र करके उग्र तपस्या द्वारा उन महातेजस्वी तपस्या की निधिरूप (प्रतापी) श्रीहरि को संतुष्ट किया था। बेटा! तब मुझे संतुष्ट करते हुए-से भगवान श्री हरि ने मुझे दर्शन दिया।
उनके विभिन्न अंगों की कान्ति श्वेत, पीत, अरुण, भूरी, कपिश और पिंगल वर्ण की थी। वे लाल, नीले ओर काले-जैसे भी दीखते थे। उनके सहस्त्रों उदर ओर हाथ थे। उनके महान मुख दो सहस्त्र की संख्या में दिखायी देते थे। वे एक नेत्र तथा सौ नेत्रों से युक्त थे। उन विश्वात्मा को निकट पाकर मैंने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और ऋक्र, यजु: तथा साम मंत्रों से उनकी स्तुति करके मैं उन शरणागतवत्सल देवकी की शरण में गया। बेटा गरुड़! सबका हित चाहने वाले उन विश्वाधिकारी अन्तर्यामी परमात्देव से तुमने वार्तालाप किया है, अत: शीघ्र उन्हीं की आराधना करो। उनकी आराधना करके तुम कभी कष्ट में नहीं पड़ोगे’। ब्रह्मर्षिशिरोमणियों! इस प्रकार अपने पूज्य पिता के यथोचितरूप से समझाने पर मैं अपने घर को गया। पिता से विदा ले अपने घर आकर मैं उन्हीं परमात्मा के ध्यान में मन लगाकर उन्हीं का चिन्तन करने लगा। मेरा भाव भक्ति से युक्त मन उन्हीं की भावना में लगा हुआ था। मेरा चित्त उनका चिन्तन करते-करते तदाकार हो गया था।
इस प्रकार मैं उन सनातन अविनाशी परम पुरुष गोविन्द के चिन्तन में तत्पर हो बैठा रहा। ऐसा करेन से मेरा हृदय नारायण के दर्शन की इच्छा से स्थिर हो गया ओर मैं मन एवं वायु के समान वेगशाली हो महान वेग का आश्रय ले रमणीय बदरीविशाल तीर्थ में भगवान नारायण के आश्रम पर जा पहुँचा। तदनन्तर वहाँ जगत की उत्पति के कारणभूत सर्वव्यापी कमलनयन श्रीगोविन्द हरि का दर्शन करके मैं उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और बड़ी प्रसन्नता के साथ ऋक्, यजु: एवं सामन्त्रों के द्वारा उनका स्तवन किया। तब मैं मन-ही-मन उन सनातन देवदेव की शरण में गया ओर हाथ जोड़कर इस प्रकार बोला- ‘भगवान! भूत और भविष्य के स्वामी, वर्तमान भूतों के निर्माता, शत्रुदमन, अविनाशी! मैं आपकी शरण में आया हूँ।[4]
श्री हरि एवं गरुड़ का संवाद
आप मेरी रक्षा करें। ‘मैं तो ‘आप कौन हैं, किसके हैं और कहाँ रहते हैं? इस बात को तत्व से जानने की इच्छा रखकर आपके चरणों की शरण में आया हूँ। देव! आप मेरी रक्षा करें’। श्रीभगवान कहा- सौम्य! तुम यथवत रूप से मेरे तत्व का साक्षात्कार करने के लिये सचेष्ट होओ। यह बात मुझे पहले से ही विदित है। तुम्हारे पिता ने तुम्हें मेरे विषय में जो कुछ ज्ञान दिया है वह सब कुछ मुझे ज्ञात है। विनतानन्दन! किसी को भी किसी तरह मेरे स्वरूप का पूर्णत: ज्ञान नहीं हो सकता। ज्ञानष्ठि विद्वान ही मेरे विषय में कुछ जान पाते हैं। जो ममता ओर अहंकार से रहित तथा कामनाओं के बन्धन से मुक्त हैं, वे ही मुझे जान पाते हैं। पक्षिप्रवर! तुम मेरे भक्त हो और सदा ही मुझमें मन लगाये रखते हो। इसलिये जगत के कारणरूप में स्थित मेरे स्थूलस्वरूप का बोध प्राप्त करोगे। गरुड़ कहते हैं- ऋषिशिरोमणियो! इस प्रकार भगवान के अभय देने पर क्षण भर में मेरे खेद, श्रम और भय सब नष्ट हो गये। उस समय शीघ्रगामी भगवान अपनी गति से धीरे-धीरे चल रहे थे और मैं महान वेग का आश्रय लेकर उनका अनुसरण करता था। वे अमित तेजस्वी एवं आत्मतत्व के ज्ञाता भगवान श्रीहरि आकाश में बहुत दूत तक का मार्ग तै करके ऐसे देश में जा पहुँच जो मन के लिये भी अगम्य था। तदनन्तर भगवान मन के समान वेग को अपनाकर मुझे मोहित करके वहीं क्षण भर में अदृश्य हो गये। वहाँ मेघ के समान धीरे-गम्भीर स्वर में उच्चारित ‘भो’ शब्द के द्वारा बोलने में कुशल भगवान इस प्रकार बोले- ‘हे गरूड़! यह मैं हूं’। मैं उसी शब्द का अनुसरण करता हुआ उस स्थान पर जा पहुँचा। वहाँ मैंने एक सुन्दर सरोवर देखा जिसमें बहुत-से हंस शोभा पा रहे थे। आत्मतत्व के ज्ञाताओं में सर्वोत्तम भगवान नारायण उस सरोवर के पास पहुँचकर ‘भो’ शब्द से युक्त अनुपम गंभीर स्वर से मुझे पुकारते हुए अपने शयन-स्थान जल में प्रविष्ट हो गये और मुझसे इस प्रकार बोले- श्रीभगवान ने कहा- सौम्य! तुम भी जल में प्रवेश करो। हम दोनों यहाँ सुख से रहेंगे।
गरुड़ कहते हैं- ऋषियों! तब मैं उन महात्मा श्री हरि के साथ उस सरोवर में घुसा। वहाँ मैंने अत्यन्त अद्भुत दृश्य देखा। भिन्न–भिन्न स्थानों पर विधिपूर्वक स्थापित की हुई प्रज्वलित अग्नियां बिना ईंधन के ही जल रही थीं ओर घी की आहुति पाकर उदद्यीप्त हो उठी थीं। घी न मिलने पर भी उन अग्नियों की दीप्ति घी की आहुति पायी हुई अग्नियों के समान थी और बिना र्इंधन के भी ईंधन युक्त आग के तुल्य उनकी प्रभा प्रकाशित होती रहती थी। वहाँ जाने पर भी उन वरदायक देवता नारायण-देव का मुझे दर्शन न हो सका। सहस्त्रों स्थानों में प्रशंसित होने वाले उन अग्निहोत्रों के समीप मैंने उन अद्भुत एवं अविनाशी श्री हरि को ढूंढना आरम्भ किया। इन अग्नियों के समीप अक्षरों का स्पष्ट उच्चारण करने वाले तथा अपने प्रभाव से अदृश्य रहने वाले, ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के विद्वानों की सुस्वर मधुर वाणी मैंने सुनी। उनके पद ओर अक्षर बहुत सुन्दर ढंग से उच्चारित हो रहे थे।[5]मैं बड़े वेग से वहाँ के हजारों घरों में घूम आया, परंतु कहीं भी अपने उन आराध्य देव को न देख सका, इससे मुझे बड़ी व्यथा हुई। निर्मल ज्वालाओं से युक्त वे अग्निहोत्र पूर्ववत् प्रकाशति हो रहे थे। उनके समीप भी मुझे कही सनातन देवाधिदेव श्रीहरि नहीं दिखायी दिये। तब मैं उन प्रदीप्त अग्निहोत्रों की परिक्रमा करते-करते थक गया। मेरी सारी इन्द्रियां व्याकुल हो उठी, परंतु उनका कहीं अन्त नहीं दिखायी दिया। जिन भगवान ने मुझे यहाँ आने के लिये प्रेरित किया था, उनका दर्शन नहीं हो सका। इस तरह चिन्ता में पड़कर मैं भगवान का ध्यान करने लगा, एवं विनय से नतमस्तक होकर मैंने निम्नांकित नामों द्वारा आदि-अन्त से रहित परमात्मा महामनस्वी नारायण की वन्दना आरम्भ की- ‘जो शुद्ध, सनातन, ध्रुव, भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी, शिवस्वरूप ओर मंगलमूर्ति हैं, कल्याण के उत्पतिस्थान हैं, शिव के भी आदिकारण तथा भगवान शिव के भी परम पूजनीय हैं, उन नारायण देव को नमस्कार है। ‘जो कल्प का अन्त करने के लिये अत्यन्त घोर रूप धारण करते हैं, जो विश्वरूप, विश्वदेव, विश्वेश्वर एवं परमात्मा हैं, उन श्रीहरि को नमस्कार है।
भगवान नारायण का वर्णन
‘जिनके सहस्त्रों उदर, सहस्त्रों पैर और सहस्त्रों नेत्र हैं, जो सहस्त्रों भुजाओं ओर सहस्त्रों मुखों से सुशोभित हैं, उन भगवान विष्णु को नमस्कार है। ‘जो हृषीकेश (सम्पूर्ण इन्द्रियों के नियन्ता), कृष्ण (सच्च्दिानन्दस्वरूप), द्रुहिण (ब्रहृा), उरूक्रम (बहुत बड़े डग भरने वाले त्रिविक्रम), ब्रहृा एवं इन्द्ररूप, गरुड़स्वरूप तथा एक सींग वाले वराहरूपधारी हैं, उन भगवान विष्णु को नमस्कार है। ‘जो शिपिविष्ट (तेजस से व्याप्त), सत्य, हरि और शिखण्डी (मोरपंखधारी श्रीकृष्ण) आदि नामों से प्रसिद्ध हैं, जो हुत (हविष्य को ग्रहण करन वाले अग्निरूप), उर्ध्वमुख, रुद्र की सेना, साधु, सिन्धु, समुद्र में वर्षा का हनन करने वाले तथा देवसिन्धु (गंगास्वरूप) है, उन भगवान विष्णु को प्रणाम है। 'जो गरुड़रूपधारी, तीन नेत्रों युक्त (रुद्ररूप), उत्तम धाम वाले, वृषावृष, धर्मपालक, सबके सम्राट, उग्ररूपधारी, उत्तम कृतिवाले, रजोगुणरहित, सबकी उत्पति के कारण तथा भवरूप हैं, उन श्रीहरि को नमस्कार है। 'जो वृष (अभीष्ट वस्तुओं की वर्षा करने वाले) वृष रूप (धर्मस्वरूप), विभु (व्यापक) तथा भूर्लोक और भवर्लोकमय हैं, जो तेजस्वी पुरुषों द्वारा सम्पादित यज्ञरूप हैं, स्थिर हैं, और स्थविररूप (वृद्ध) हैं, उन भगवान नमस्कार है। 'जो अपनी महिमा से कभी च्युत नहीं होते, हिम के समान शीतल हैं, जिनमें वीरत्व है, जो सर्वत्र समभाव से स्थित है, जिनमें वीरत्व है, जो सर्वत्र समभाव से स्थित हैं, विजयशील हैं, जिन्हें बहुत लोग लोग पुकारते हैं अथवा जो इन्द्ररूप हैं तथा जो सर्वश्रष्ठ वसिष्ठ हैं, उन भगवान नमस्कार है। 'जो सत्य और देवताओं के स्वामी हैं, हरि (श्यामसुन्दर) और शिखण्डी 'जो सत्य और देवताओं के स्वामी हैं, हरि (श्यामसुन्दर) और शिखण्डी (मोरमुकुटधारी) हैं, जो कुशा पर बैठने वाले सर्वेश्रेष्ठ वसुरूप हैं, उन विश्वस्त्रष्टा भगवान विष्णु को नमस्कार है। जो किरीटीधारी, सुन्दर केशों से सुशोभित तथा पराक्रमी वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण रूप हैं, बृहदुक्थ साम जिनका स्वरूप है, जो सुन्दर सेना से युक्त हैं, जुए का भार संभालने वाले वृषभरूप हैं तथा दुन्दुभि नामक वाद्य विशेष हैं, उन भगवान नमस्कार है। 'जो इस जगत में जीवमात्र के सखा हैं, व्यापक रूप हैं, भरद्वाज को अभय देने वाले हैं, सूर्य रूप से प्रभा का विस्तार करने वाले हैं, श्रेष्ठ पुरुषों के स्वामी है, जिनकी नाभि से कमल प्रकट हुआ है और जो महान हैं, उन भगवान नारायण को नमस्कार है।[6]
'जो पुनर्वसु नामक नक्षत्र से पालित ओर जीवमात्र की उत्पति के स्थान हैं, वषट्कार, स्वाहा, स्वधा और निधन- ये जिनके ही नाम और रूप हैं तथा जो ऋक्, यजुष, सामवेद-स्वरूप हैं और त्रिलोक की के अधिपति हैं, उन भगवान विष्णु को मेरा प्रमाण है। जो हिरण्यगर्भ, सौम्य, वृषरूपधारी, नारायण, श्रेष्ठ शरीरधारी, पुरूहूत (इन्द्र) तथा वज्र धारण करने वाले हैं, जो धर्मात्मा, वृषसेन, धर्मसेन तथा तटरूप हैं, उन भगवान श्रीहरि को नमस्कार है। ‘जो मननशील मुनि, ज्वर आदि रोगों से मुक्त तथा ज्वर के अधिपति हैं, जिनके नेत्र नहीं हैं अथवा जिनके तीन नेत्र नहीं हैं, जो पिंगलवर्ण वाले तथा प्रजारूपी लहरों की उत्पति के लिये महासागर के समान हैं, उन भगवान विष्णु को नमस्कार है। ‘जो तप और वेद की निधि हैं, बारी-बारी से युगों का परिवर्तन करने वाले हैं, सबके शरणदाता, शरणागतत्वसल और शक्तिशाली पुरुष के लिये अभीष्ट आश्रय हैं, सम्पूर्ण संसार के अधीश्वर एवं भूत, वर्तमान और भविष्य हैं, उन भगवान नारायण को नमस्कार है। ‘देवदेवश्वर! आप मेरी रक्षा करें सनातन परमात्मन! आप कोई अनिर्वचनीय अजन्मा पुरुष हैं, ब्राह्मणों के शरणदाता हैं, मैं इस संकट में पड़कर आपकी ही शरण लेता हूं’। इस प्रकार स्तवनीय परमेश्वर की स्तुति करते ही मेरा वह सारा दु:ख नष्ट हो गया तत्पश्चात मुझे किसी अदृश्य शक्ति के द्वारा कही हुई यह मंगलमयी दिव्य वाणी सुनायी दी।
श्रीहरि द्वारा गरुड़ को सांत्वना देना
श्रीभगवान बोले- गरुड़! तुम डरो मत। तुमने मन और इन्द्रियों को जीत लिया है। अब तुम पुन: इन्द्र आदि देवताओं के सहित अपने घर में जाकर पुत्रों और भाई-बन्धुओं को देखोगे। गरुड़ जी कहते हैं- मुनियों! तदनन्तर उसी क्षण वे परम कान्तिमान तेजस्वी नारायण सहसा मेरे सामने अत्यन्त निकट दिखायी दिये। तब उन मंगलमय परमात्मा से मिलकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर मैंने देखा, वे आठ भुजाओं वाले सनातनदेव पुन: नर-नारायण के आश्रम की ओर आ रहे हैं। वहाँ मैनें देखा, ऋषि यज्ञ कर रहे हैं, देवता बातें कर रहे है, मुनिलोग ध्यान में मग्न हैं, योगयुक्त सिद्ध ओर नैष्ठिक ब्रहृाचारी जप करते हैं तथा गृहस्थ लोग यज्ञों के अनुष्ठा में संलग्न हैं। नर-नारायण का आश्रम धूप से सुगन्धित ओर दीप से प्रकाशित हो रहा था। वहाँ चारों ओर ढेर-के-ढेर फूल बिखरे हुए थे। वह आश्रम सबके लिये हितकर एवं सत्पुरुषों द्वारा वन्दित था। झाड़-बुहार कर स्वच्छ बनाया और सींचा गया था। निष्पाप मुनियों! उस अद्भुत दृश्य को देखकर मुझे बड़ा विस्मय हुआ और मैंने पवित्र एवं एकाग्र हृदय से मस्तक झुकाकर उन भगवान की शरण ली। वह सब अद्भूत-सा दृश्य क्या था, यह बहुत सोचने पर भी मेरी समझ में नहीं आया। सबकी उत्पति के कारण भूत उन परमात्मा के परम दिव्य भाव को मैं नहीं समझ सका। उन दुर्जय परमात्मा को बारंबार प्रणाम करके उनकी ओर देखकर मेरे नेत्र आश्चर्य से खिल उठ ओर मैंने मस्तक पर अंजलि बांधे उन श्रेष्ठ पुरुषों में भी सर्वश्रेष्ठ एवं उदार पुरुषोत्तम से कहा- ‘भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी भगवान नारायणदेव! आपको नमस्कार है।[7]
गरुड़ द्वारा प्रस्न करना
देव! मैनें आपके आश्रित जो यह अद्भुत दृश्य देखा है, इसका कहीं आदि मध्य ओर अन्त नहीं है। वह सब क्या है, यह बताने की कृपा करें। ‘यदि आप मुझे अपना भक्त समझते हैं अथवा यदि आपका मुझ पर अनुग्रह है तो यह सब यदि मेरे सुनने योग्य हो तो पूर्ण रूप से बताइये। ‘आपका स्वभाव दुर्ज्ञेय है। आप अजन्मा परमेश्वर का प्रादुर्भाव भी समझ में आना कठिन है। भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी नारायण! आप सर्वथा गहन (अगम्य) हैं। ‘महामुने! वह सारा आश्चर्यजनक एवं अद्भुत वृतान्त जो उन अग्नियों के चारों ओर देखा गया, क्या था? यह पूर्णरूप से बताने की कृपा करें। ‘वे अग्निहोत्र कौन थे? निरन्तर वेदों का श्रवण और पाठ करने वाले वे अदृश्य महात्मा कौन थे, जिनका शब्द मात्र मैंने सुना था? ‘भगवान श्रीकृष्ण! यह सब आप पूर्णरूप से मुझे बताइये। जो लोग अग्नि के समीप वेदों का परायण कर रहे थे, वे ब्रह्माणसमूह महात्मा कौन थे ?’
श्रीकृष्ण द्वारा गूढ़ रहस्य बताना
श्री भगवान बोले- गरुड़! मुझे न तो देवता न गन्धर्व, न पिशाच और न राक्षस ही तत्व से जानते हैं। मैं सम्पूर्ण तत्वों में उनके सूक्ष्म आत्मारूप से अवस्थित हूँ। पृथ्वी, वायु, आकाश जल, अग्नि, मन, बुद्धि, तेज (अहंकार), सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, प्रकृति, विकृति, विद्या, अविद्या तथा शुभ और अशुभ- ये सब मुझसे ही उत्पन्न होते हैं। में इनसे किसी प्रकार उत्पन्न नहीं होता। मनुष्य कल्याणभावना से युक्त हो जिस किसी पवित्र, धर्मयुक्त एवं श्रेष्ठ भाव का निश्चिय करता है वह सब मैं निरामय परमेश्वर ही हूँ। स्वभाव एवं आत्मा के तत्त्व को जानने वाले पुरुष विभिन्न हेतुओं द्वारा जिसका साक्षात्कार करते हैं, वह आदि, मध्य और अन्त से रहित सर्वान्तरात्मा सनातन पुरुष मैं ही हूँ। सूक्ष्म अर्थ को देखने और समझने वाले तथा सूक्ष्म भाव को जानने वाले ज्ञानी पुरुष मेरे जिस परम गुहृय रूप को ग्रहण करते हैं, वह चिन्तनीय सनातन परमात्मा मैं ही हूँ। जो मेरा परम गुहय रूप है और जिससे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है, वह सर्वसत्वरूप परमात्मा मैं ही हूं, मैं ही सबका अविनाशी कारण हूँ। गरुड़! सम्पूर्ण भूत प्राणी मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं, मेरे ही द्वारा वे अहर्निश जीवन धारण करते हैं और प्रलय के समय सब-के-सब मुझ में ही लीन हो जाते हैं। कश्यप! जो मुझे जैसा जानता है, उसके लिये मैं वेसा ही हूँ। विहंगम! मैं सभी के मन और बुद्धि में रहकर सबका कल्याण करता हूँ। पक्षिप्रवर! तुमने मेरे तत्व को जानने का विचार किया था, अत: मैं कौन हूं? कहाँ से आया हूं? किस उद्देश्य की सिद्धी के लिय उद्यत हुआ हूं? यह सब बताता हूं, सुनो। जो कोई ब्रह्माण अपने मन को वश में करके त्रिविध अग्नियों की उपासना करते हैं, नित्य अग्निहोत्र में तत्पर और जप-होम में संलग्न है, जो नियमपूर्वक रहकर रहकर अपनी इन्द्रियों को वश में करके अपने-आप में ही अग्नियों का आधान कर लेते हैं तथा सब-के-सब अनन्यचित होकर मेरी ही उपासना करते हैं, जो अपने को पूर्ण संयम में रखकर जप, यज्ञ और मानस यज्ञों द्वारा मेरी आराधना करते हैं, जो सदा अग्निहोत्र में ही तत्पर रहकर अग्नियों का स्वागत करते हैं तथा अन्य कार्य में रत न होकर शुद्ध भाव से सदा अग्नि की परिचार्य करते है, ऐसी बुद्धि वाले धीर पुरुष वैसे भक्ति भाव से सम्पन्न होते हैं, वे मुझे प्राप्त कर लेते हैं।[8]
जिन्होनें निष्काम भाव के द्वारा अपने सारे संकल्पों को नष्ट कर दिया है, जो सदा ज्ञान में ही चित्त को एकाग्र किये रहते हैा और अग्नियों को अपने आत्मा में ही स्थापित करके आहार (भोग) और कामनाओं का त्याग कर देते हैं, विषयों की उपलब्धि के लिये जिनकी कोई प्रवृति नहीं होती, जो सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त एवं ज्ञान दृष्टि से सम्पन्न हैं, वे स्वभावत: नियमपरायण एवं अनन्यचित से मेरा चिन्तन करने वाले धीर पुरुष मुझे ही प्राप्त होते हैं। तुमने जो आकाश में कमल और उत्पल से भरा हुआ सुन्दर सरोवर देखा था, उसके समीप स्थापित हुई अग्नियां बिना ईंधन ही प्रज्वलित हेाती है। जिनके अन्त: करण ज्ञान के प्रकाश से निर्मल हो गये है, जो चन्द्रमा की किरणों के समान उज्जवल हैं, वे ही वहाँ स्पष्ट अक्षर का उच्चारण करते हुए वेदमन्त्रों के उच्चारणपूर्वक अग्नि की उपासना करते हैं। विहंगम! वे पवित्रभाव से रहकर उन अग्नियों की परिचर्या की ही इच्छा रखते हैं। मेरा चिन्तन करने के कारण जिनका अन्त: करण पवित्र हो गया है, जो सदा मेरी ही उपासना में रत हैं, वे ही वहाँ रोग-शोक से रहित एवं ज्योति:स्वरूप होकर मेरी ही उपासना किया करते हैं। वे अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होकर वीतराग हृदय से वदा वही निवास करेंगे। उनकी अंगकान्ति चन्द्रमा की किरणों के समान उज्जवल है। वे निराहार, श्रम बिन्दुओं से रहित, निर्मल, अहंकारशून्य, आलम्बन रहित और निष्काम हैं। उनकी सदा मुझ में भक्ति बनी रहती है तथा मैं भी उनका भक्त (प्रेमी) बना रहता हूँ। मैं अपने को चार स्वरूपों में विभक्त करके जगत के हित साधन में तत्पर हो विचरता रहता हूँ। सम्पूर्ण लोक जीवित एवं सुरक्षित रहें- इसके लिये मैं विधान बनाता हूँ। वह सब तुम यथार्थ रूप से सुनने के अधिकारी हो। तात! मेरी एक निर्गुण मूर्ति है जो परम योग का आश्रय लेकर रहती है। दूसरी वह मूर्ति है जो चराचर प्राणि समुदाय की सृष्टि करती है। तीसरी मूर्ति स्थावर-जंगम जगत का संहार करती है और चौथी मूर्ति आत्मनिष्ठ है, जो आसुरी शक्तियों को माया से मोहित-सी करके उन्हें नष्ट कर देती है। अपनी माया से दुष्टों को मोहित और नष्ट करने वाली जो मेरी चौथी आत्मनिष्ठ महामूर्ति है, वह नियम-पूर्वक रहकर जगत की वृद्धि और रक्षा करती है। गरुड़! वह मैं हूँ। मैंने इस सम्पूर्ण जगत को व्याप कर रखा है। सारा जगत मुझ में ही प्रतिष्ठित है। मैं ही सम्पूर्ण जगत का बीज हूँ। मेरी सर्वत्र गति है और में अविनाशी हूँ। विहंगम! वे जो अग्निहोत्र थे तथा जो चन्द्रमा की किरणों पुंज-जैसी कान्ति वाले पुरुष निरन्तर उन अग्नियों के समीप बैठकर वेदों का पाठ करते थे, वे ज्ञानसम्पन्न एवं सुखी होकर क्रमश: मुझे प्राप्त होते हैं। मैं ही उनका उदद्प्त तप और सम्यक रूप से संचित तेज हूँ। वे सदा मुझ में विद्यमान हैं और मैं उनमें सावधान हुआ रहता हूँ। जो सब ओर से आसक्तिशून्य है, वह मुझे में अनन्य भाव से चित को एकाग्र करके ज्ञान दृष्टि से मेरा साक्षात्कार कर सकता है। जो संयास का आश्रय लेकर अनन्य भाव से मेरे ध्यान में तत्पर रहते हैं, वे मुझे ही प्राप्त होते हैं। जिनकी बुद्धि सत्वगुण से युक्त है और केवल आत्मतत्व निश्चय करके उसी के चिन्तन में लगी हुई है, वे अपने आत्मरूप अविनाशी परमात्मा का दर्शन करते हैं।[9]
निष्काम भाव से किये गये कार्यों का वर्णन
जिन्होनें निष्काम भाव के द्वारा अपने सारे संकल्पों को नष्ट कर दिया है, जो सदा ज्ञान में ही चित्त को एकाग्र किये रहते हैा और अग्नियों को अपने आत्मा में ही स्थापित करके आहार (भोग) और कामनाओं का त्याग कर देते हैं, विषयों की उपलब्धि के लिये जिनकी कोई प्रवृति नहीं होती, जो सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त एवं ज्ञान दृष्टि से सम्पन्न हैं, वे स्वभावत: नियम परायण एवं अनन्यचित से मेरा चिन्तन करने वाले धीर पुरुष मुझे ही प्राप्त होते हैं। तुमने जो आकाश में कमल और उत्पल से भरा हुआ सुन्दर सरोवर देखा था, उसके समीप स्थापित हुई अग्नियां बिना ईंधन ही प्रज्वलित हेाती है। जिनके अन्त: करण ज्ञान के प्रकाश से निर्मल हो गये है, जो चन्द्रमा की किरणों के समान उज्जवल हैं, वे ही वहाँ स्पष्ट अक्षर का उच्चारण करते हुए वेदमन्त्रों के उच्चारणपूर्वक अग्नि की उपासना करते हैं। विहंगम! वे पवित्रभाव से रहकर उन अग्नियों की परिचर्या की ही इच्छा रखते हैं। मेरा चिन्तन करने के कारण जिनका अन्त: करण पवित्र हो गया है, जो सदा मेरी ही उपासना में रत हैं, वे ही वहाँ रोग-शोक से रहित एवं ज्योति:स्वरूप होकर मेरी ही उपासना किया करते हैं। वे अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होकर वीतराग हृदय से वदा वही निवास करेंगे। उनकी अंगकान्ति चन्द्रमा की किरणों के समान उज्जवल है। वे निराहार, श्रम बिन्दुओं से रहित, निर्मल, अहंकार शून्य, आलम्बन रहित और निष्काम हैं। उनकी सदा मुझ में भक्ति बनी रहती है तथा मैं भी उनका भक्त (प्रेमी) बना रहता हूँ। मैं अपने को चार स्वरूपों में विभक्त करके जगत के हित साधन में तत्पर हो विचरता रहता हूँ। सम्पूर्ण लोक जीवित एवं सुरक्षित रहें- इसके लिये मैं विधान बनाता हूँ। वह सब तुम यथार्थ रूप से सुनने के अधिकारी हो।
तात! मेरी एक निर्गुण मूर्ति है जो परम योग का आश्रय लेकर रहती है। दूसरी वह मूर्ति है जो चराचर प्राणि समुदाय की सृष्टि करती है। तीसरी मूर्ति स्थावर-जंगम जगत का संहार करती है और चौथी मूर्ति आत्मनिष्ठ है, जो आसुरी शक्तियों को माया से मोहित-सी करके उन्हें नष्ट कर देती है। अपनी माया से दुष्टों को मोहित और नष्ट करने वाली जो मेरी चौथी आत्मनिष्ठ महामूर्ति है, वह नियम-पूर्वक रहकर जगत की वृद्धि और रक्षा करती है। गरुड़! वह मैं हूँ। मैंने इस सम्पूर्ण जगत को व्याप कर रखा है। सारा जगत मुझ में ही प्रतिष्ठित है। मैं ही सम्पूर्ण जगत का बीज हूँ। मेरी सर्वत्र गति है और में अविनाशी हूँ। विहंगम! वे जो अग्निहोत्र थे तथा जो चन्द्रमा की किरणों पुंज-जैसी कान्ति वाले पुरुष निरन्तर उन अग्नियों के समीप बैठकर वेदों का पाठ करते थे, वे ज्ञानसम्पन्न एवं सुखी होकर क्रमश: मुझे प्राप्त होते हैं। मैं ही उनका उदद्प्त तप और सम्यक रूप से संचित तेज हूँ। वे सदा मुझ में विद्यमान हैं और मैं उनमें सावधान हुआ रहता हूँ। जो सब ओर से आसक्तिशून्य है, वह मुझे में अनन्य भाव से चित को एकाग्र करके ज्ञान दृष्टि से मेरा साक्षात्कार कर सकता है। जो संयास का आश्रय लेकर अनन्य भाव से मेरे ध्यान में तत्पर रहते हैं, वे मुझे ही प्राप्त होते हैं।[10]
जिनकी बुद्धि सत्वगुण से युक्त है और केवल आत्मतत्व निश्चय करके उसी के चिन्तन में लगी हुई है, वे अपने आत्मरूप अविनाशी परमात्मा का दर्शन करते हैं। उन्हीं का समस्त प्राणियों के प्रति अहिंसा भाव होता है, उन्हीं में 'सरलता' नामक सद्गुण की स्थित होती है और उन्हीं गुणों में स्थित हुआ जो चित्त को मुझे परमात्मा में भली-भाँति समाहित कर देता है वह मुझ अजन्मा परमेश्वर को प्राप्त होता है। यह जो परम गोपनीय एवं अत्यंत अद्भुत आख्यान है, इसे पूर्णत: यत्नपूर्वक यथावत रूप से श्रवण करो। जो अग्निहोत्र में संलग्न और जप-यज्ञपरायण होते है, जो निरंतर मेरी उपासना करते रहते हैं, उन्हीं का तुमने प्रत्यक्ष दर्शन किया है। जो शास्त्रोक्त विधि के ज्ञाता होकर अनासक्त भाव से सत्कर्म करते हैं, कभी शास्त्रविपरीत- असत कर्म में नहीं लगते, उनके द्वारा ही मैं जाना जा सकता हूँ। मेरा जो अविनाशी परम तत्व है, उसे भी वे ही जान सकते है। इसलिये विशुद्ध ज्ञान के द्वारा जिसका चित्त प्रसन्न (निर्मल) है, जो आत्मत्व का ज्ञाता और पवित्र है, वह ज्ञानी पुरुष ही उस ब्रह्मा को प्राप्त होता है, जहाँ जाकर कोई शोक में नहीं पड़ता। जो शुद्ध कुल में उत्पन्न हैं, जो श्रेष्ठ द्विज श्रद्धायुक्त चित्त से मेरा भजन करते हैं, वे मरी भक्ति द्वारा परम गति को प्राप्त होते हैं। जो बुद्धि के लिये परम गहृय रहस्य है, जो किसी आकृति से गृहीत नहीं होता- अनुभव में नहीं आता उस सूक्ष्म परब्रह्मा का तत्वदर्शी यति ब्रह्माण साक्षात्कार कर लेते हैं। वहाँ यह वायु नहीं चलती, ग्रहों और नक्षत्रों की पहुँच नहीं होती तथा जल, पृथ्वी, आकाश और मन की भी गति नहीं हो पाती है। विहंगम! उसी ब्रह्मा से सारी वस्तुएं उत्पन्न होती हैं। वह निर्मल एवं सर्वव्यापी परमात्मा उन सबके द्वारा ही सबको उत्पन्न करने में समर्थ है।
अनघ! तुमने जो मेरा यह स्थूल रूप देखा है, यही मेरे सूक्ष्म स्वरूप में प्रवेश करने का द्वार है। समस्त कार्यों का कारण मैं ही हूँ। अमित पराक्रमी गरुड़! इसीलिये तुमने उस सरोवर में मेरा दर्शन किया है। यज्ञ के ज्ञाता मुझे यज्ञ कहते हैं। वेदों के विद्वान मुझे ही वेद बताते हैं और मुनि भी मुझे ही जप-यज्ञ कहते हैं। मैं ही वक्ता, मनन करने वाला, रस लेने वाला, सूंघने वाला, देखने और दिखाने वाला, समझने और समझाने वाला तथा जाने और सुनने वाला चेतन आत्मा हूँ। मेरा ही यजन करके यजमान स्वर्ग में आते और महान पद पाते हैं। इसी प्रकार जो अनासक्त हृदय से मुझे ही जान लेते है, वे मुझ परमात्मा को ही प्राप्त होते हैं। मैं ब्राह्मणों का तेज हूँ और ब्राह्मण मेरे तेज हैं। मेरे तेज से जो शरीर प्रकट हुआ है, उसी को तुम अग्नि समझो। मैं ही शरीर में प्राणों का रक्षक हूँ। मैं ही योगियों का ईश्वर हूँ। सांख्यों का जो यह प्रधान तत्व है, वह भी मैं ही हूँ। मुझमें ही यह सम्पूर्ण जगत स्थित है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सरलता, जप, सत्वगुण, तमोगुण, रजोगुण तथा कर्मजनित जन्म-मरण - सब मेरे ही स्वरूप हैं। उस समय तुमने मुझ सनातन पुरुष का उस रूप में दर्शन किया था। उससे भी उत्कृष्ट जो मेरा स्वरूप है, उसे तुम समयानुसार जान सकते हो।[11]
श्री हरि के यथार्थ स्वरूप के दर्शन प्राप्त करने का रहस्य
मेरा जो परम गोपनीय, शाश्वत, ध्रुव एवं अव्यय पद है, उसका ज्ञान भी तुम्हें समयानुसार हो सकता है। इस प्रकार मैं नारायण देव एवं हरि नाम से प्रसिद्ध परमेश्वर परम गोपनीय माना गया हूँ। गरुड़! जो लौकिक अभ्युदय में आसक्त हैं, वे मेरे उसस्वरूप को नहीं जान सकते। जो कर्मों के आरम्भ का मार्ग छोड़ चुके हैं, नमस्कार से दूर हो गये हैं और कामनाओं बन्धन से मुक्त हैं, वे यतिजन उन सनातन परमात्मा परब्रह्मा को प्राप्त होते हैं। निष्पाप पक्षिराज गरुड़! इस प्रकार तुमने मेरे स्थूल स्वरूप का दर्शन किया है। परंतु तुम्हारे सिवा दूसरा कोई इस स्वरूप को भी नहीं जानता। तुम्हारी बुद्धि का नाश न हो- यही सर्वोत्तम गति है। तुम नित्य -निरंतर मेरी भक्ति में लगे रहो। इससे तुम्हें स्वरूप का यथार्थ बोध हो जायेगा। यह सब तुम्हें बताया गया। यह देवताओं और मनुष्यों के लिये भी रहस्य की बात है। यही परम कल्याण है। तुम इसे मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों का मार्ग समझो। गरुड़ कहते हैं- ऋषियों! ऐसा कहकर वे भगवान वही अन्तर्धान हो गये।
वे महायोगी तथा आत्मगतिरूप परमेश्वर मेरे देखते-देखते अदृश्य हो गये। इस प्रकार मैंने पूर्वकाल में अप्रमेय महात्मा अच्युत की महिमा का साक्षात्कार किया था। अद्भुत कर्मा परम बुद्धिमान भगवान श्रीहरि की यह सारी लीला जो मैंने प्रत्यक्ष देखकर अनुभव की है, आपको बता दी।
ऋषियों का संवाद
ऋषियों ने कहा- अहो! आपने यह बड़ा अद्भुत एवं महत्वपूर्ण आख्यान सुनाया। यह परम पवित्र प्रसंग यश, आयु एवं स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला तथा महान मंगलकारी है। परंतप गरुड़ जी! यह पवित्र विषय देवताओं के लिये भी गुहृय रहस्य है। यही ज्ञानियों का ज्ञेय है ओर यही सर्वोत्तम गति है। जो विद्वान प्रत्येक पर्व के अवसर पर इस कथा को सुनायेगो वह देवर्षियों द्वारा प्रशंसित मुण्य-लोकों को प्राप्त होगा। जो श्राद्ध के समय पवित्रभाव से ब्राह्मणों को यह प्रसंग सुनायेगा, स श्राद्ध में राक्षसों और असुरों को भाग नहीं मिलेगा। जो दोषदृष्टि से रहित हो क्रोध को जीतकर समस्त प्राणियों के हित में तत्पर हो सदा योगयुक्त रहकर इसका पाठ करेगा वह भगवान विष्णु के लोक में जायगा। इसका पाठ करने वाला ब्राह्मण वेदों का पारंगत विद्वान होगा। क्षत्रिय को इसका पाठ करने से युद्ध में विजय की प्राप्ति होगी। वैश्य धन-धान्य से सम्पन्न और शूद्र सुखी होगा।
राजन! तदनन्तर वे सम्पूर्ण महर्षि विनतानन्दन गरुड़ की पूजा करके अपने-अपने आश्रम को चले गये और वहाँ शम-दम के साधन में तत्पर हो गये। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महाराज युधिष्ठिर! जिनका मन अपने वश में नहीं है, उन स्थूलदर्शी पुरूर्षों के लिये भगवान श्रीहरि के तत्व का ज्ञान होना अत्यन्त कठिन है। यह धर्मसम्मत श्रुति है। परंतप! इसे ब्रह्माजी ने आश्चर्यचकित हुए देवताओं को सुनाया था। तात! तत्वज्ञानी वसुओं ने मेरी माता गंगा जी के निकट मुझसे यह कथा कही थी और अब तुमसे मैंने कही है। जो अग्निहोत्र में तत्पर, जप-यज्ञ में संलग्न तथा कामनाओं के बन्धन से मुक्त होते है, वे अविनाशी परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं। जो क्रियात्मक यज्ञों का परित्याग करके जप और होम में तत्पर हो मन-ही-मन भगवान विष्णु का ध्यान करते हैं वे परम गति को प्राप्त होते हैं। भरतनन्दन! जब निश्चित बुद्धि वाले पुरुष परमात्म-तत्व को जानकर परम गति को प्राप्त हो जाते हैं, वही परम मोक्ष या मोक्षद्वार कहलाता है।[12]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-1
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-2
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-3
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-4
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-5
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-6
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-7
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-8
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-9
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-10
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-11
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-12
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| ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना
| भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना
| सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा
| पार्वती का देवताओं को शाप
| तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना
| ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन
| देवताओं द्वारा अग्नि की खोज
| गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना
| कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति
| महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति
| कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण
| कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध
| विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल
| श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन
| विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल
| पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन
| पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन
| श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता
| निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान
| श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश
| विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन
| पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना
| श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद
| भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना
| वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा
| भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा
| इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत
| अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ
| इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना
| सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना
| जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना
| छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा
| गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद
| तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद
| नहुष का ऋषियों पर अत्याचार
| महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप
| नहुष का पतन
| शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा
| ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद
| ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति
| धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद
| ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद
| आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन
| गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण
| बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन
| माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन
| मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन
| दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन
| मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता
| द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य
| मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन
| बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद
| विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन
| पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा
| बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना
| हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा
| मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा
| मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा
| द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त
| कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन
| कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति
| दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य
| विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा
| तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश
| पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन
| नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश
| ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त
| श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद
| पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद
| धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद
| विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन
| लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन
| अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
| दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन
| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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