भीम और दुर्योधन में वाग्युद्ध

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 33वें अध्याय में संजय ने श्रीकृष्ण द्वारा भीमसेन की प्रशंसा करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

श्रीकृष्ण द्वारा भीमसेन की प्रशंसा

तदनन्तर भयंकर बलशाली भीमसेन ने सृंजयों के साथ खड़े हुए तपते सूर्य के समान तेजस्वी युधिष्ठिर से कहा- ‘भैया! मैं रणभूमि में इस दुर्योधन के साथ भिड़कर लड़ने का उत्साह रखता हूँ। यह नराधम मुझे युद्ध में परास्त नहीं कर सकता। मेरे हृदय में दीर्घकाल से जो अत्यन्त क्रोध संचित है, उसे आज मैं धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन पर उसी प्रकार छोडूंगा, जैसे अर्जुन ने खाण्डव वन में अग्निदेव को छोड़ा था। पाण्डुनन्दन! नरेश! आज मैं गदा द्वारा पापी दुर्योधन का वध करके आपके हृदय का कांटा निकाल दूंगा; अतः आप सुखी होइये। अनघ! आज आपके गले में मैं कीर्तिमयी माला पहनाऊंगा तथा आज यह दुर्योधन अपने राज्यलक्ष्मी और प्राणों का परित्याग करेगा। आज मेरे हाथ से पुत्र को मारा गया सुनकर राजा धृतराष्ट्र शकुनि की सलाह से किये हुए अपने अशुभ कर्मों को याद करेंगे’।[1]

ऐसा कहकर भरतवंशी वीरों में श्रेष्ठ पराक्रमी भीमसेन गदा उठा कर युद्ध के लिये उठ खड़े हुए और जैसे इन्द्र ने वृत्रासुर को ललकारा था, उसी प्रकार उन्होंने दुर्योधन का आह्वान किया। महाराज! उस समय आपका अत्यन्त पराक्रमी पुत्र दुर्योधन भीमसेन की उस ललकार को न सह सका। वह तुरंत ही उनका सामना करने के लिये उपस्थित हो गया, मानो एक मतवाला हाथी दूसरे मदोन्मत गजराज से भिड़ने को उद्यत हो गया हो। हाथ में गदा लेकर युद्ध के लिये उपस्थित हुए आपके पुत्र को समस्त पाण्डवों ने श्रृंगधारी कैलास पर्वत के समान देखा। जैसे कोई मतवाला हाथी अपने यूथ से बिछुड़ गया हो, उसी प्रकार अकेले आये हुए आपके महाबली पुत्र दुर्योधन को पाकर समस्त पाण्डव हर्ष से खिल उठे। उस समय दुर्योधन के मन में न घबराहट थी, न भय। न ग्लानि थी, न व्यथा। वह युद्धस्थल में सिंह के समान निर्भय खड़ा था। राजन! श्रृंगधारी कैलास पर्वत के समान गदा उठाये दुर्योधन को देखकर भीमसेन ने उससे कहा- ‘दुर्योधन! तूने तथा राजा धृतराष्ट्र ने भी हम लोगों पर जो-जो अत्याचार किया था और वारणावत नगर में जो कुछ हुआ था, उन सारे पाप कर्मों को याद कर ले।

दुरात्मन! तूने भरी सभा में रजस्वला द्रौपदी को क्लेश पहुँचाया, शकुनि की सलाह लेकर राजा युधिष्ठिर को कपटपूर्वक जूए में हराया तथा निरपराध कुन्तीपुत्रों पर दूसरे-दूसरे जो पाप एवं अत्याचार किये थे, उन सब का महान अशुभ फल आज तू अपनी आंखों देख ले। तेरे ही कारण हम सब लोगों के पितामह महायशस्वी गंगानन्दन भरतश्रेष्ठ भीष्मजी आज शरशय्या पर पड़े हुए हैं। तेरी ही करतूतों से आचार्य द्रोण, कर्ण, प्रतापी शल्य तथा वैरका आदि स्रष्टा वह शकुनि- ये सभी रणभूमि में मारे गये हैं। तेरे भाई, शूरवीर पुत्र, सैनिक तथा युद्ध में पीठ न दिखाने वाले अन्य बहुत से शौर्य सम्पन्न नरेश भी मृत्यु के अधीन हो गये हैं। ये तथा दूसरे बहुसंख्यक क्षत्रिय शिरोमणि वीर मार डाले गये हैं। द्रौपदी को क्लेश पहुँचाने वाले पापी प्रातिकामी का भी वध हो चुका है। अब इस वंश का नाश करने वाला नराधम एक मात्र तू ही बच गया है। आज इस गदा से तुझे भी मार डालूंगा; इसमें संशय नहीं है। नरेश्वर! आज रणभूमि में मैं तेरा सारा घमंड चूर्ण कर दूंगा। राजन! तेरे मन में राज्य पाने की जो बड़ी भारी लालसा है, उसका तथा पाण्डवों पर तेरे द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों का भी अन्त कर डालूंगा’।

दुर्योधन बोला- वृकोदर! बहुत बढ़-बढ़ कर बातें बनाने से क्या लाभ? आज मेरे साथ भिड़ तो सही। मैं युद्ध का तेरा सारा हौसला मिटा दूंगा। पापी! क्या तू देखता नहीं कि मैं हिमालय के शिखर की भाँति विशाल गदा हाथ में लेकर युद्ध के लिये खड़ा हूँ। ओ पापी! आज कौन ऐसा शत्रु है, जो मेरे हाथ में गदा रहते हुए भी मुझे मार सके। न्यायपूर्वक युद्ध करते हुए देवताओं के राजा इन्द्र भी मुझे परास्त नहीं कर सकते। कुन्तीपुत्र! शरद ऋतु के निर्जल मेघ की भाँति व्यर्थ गर्जना न कर। आज तेरे पास जितना बल हो, वह सब युद्ध में दिखा।[2] दुर्योधन का यह वचन सुनकर विजय की इच्छा रखने वाले समस्त पाण्डवों और सृंजयों ने भी उसकी बड़ी सराहना की। राजन! जैसे मतवाले हाथी को मनुष्य ताली बजा कर कुपित कर देते हैं, उसी प्रकार उन्होंने बारंबार ताल ठोककर राजा दुर्योधन के युद्ध विषयक हर्ष और उत्साह को बढ़ाया। उस समय वहाँ विजयाभिलाषी पाण्डवों के हाथी बारंबार चिग्घाड़ने और घोड़े हिनहिनाने लगे। साथ ही उनके अस्त्र शस्त्र दीप्ति से प्रकाशित हो उठे।[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 33 श्लोक 17-36
  2. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 33 श्लोक 37-55
  3. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 33 श्लोक 56-58

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