भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
वासुदेव गोकुल गये
देवि! इसे मुझे दो। कंस आवे इससे पहले मैं इसे लेकर निकल जाऊँ।’ दोनों हाथ फैला दिये वसुदेव जी ने देवकी के सम्मुख। वह नीलसुन्दर भला क्यों रोने लगा। वह तो वसुदेव जी की ओर ही देख रहा था चुपचाप। जैसे वह जाने से पूर्व पिता को पहिचान लेना चाहता था। माता ने हृदय से लगाया शिशु को। उसके भाल का चुम्बन किया और उठाकर वसुदेव जी के करों पर धर दिया– ‘इसकी सुरक्षा के लिए इसे छोड़ती हूँ, समस्त देवता इसकी रक्षा करें।' वसुदेव जी ने इधर-उधर देखा। केवल एक सूप मिला उन्हें। अपना ही पटुका बिछाकर लिटा दिया शिशु को उसमें और मस्तक पर रखकर उठ खड़े हुए। वसुदेव जी या माता देवकी को भी यह स्मरण नहीं आया कि द्वार बन्द हैं। यह भुवन-मोहन समीप हो तो इसके अतिरिक्त दूसरा कुछ क्या स्मरण रहता है। अपने शरीर तक की सुधि तो दम्पत्ति को रही नहीं थी, फिर यह सुधि कैसे रहती कि जो मेघ पहले दूर मन्द–मन्द गर्जना करते सुनायी पड़ते थे, वे उमड़-घुमड़ रहे हैं मथुरा के गगन में। प्रबल झंझावात और तीव्र वर्षा हो रही है इस समय। वसुदेव जी ने पद बढ़ाये और द्वार की अर्गला किसी अज्ञात कर ने हटा दी। श्रृंखला खुल गयी। खुल गया स्वत: वह कक्षद्वार। अन्तत: गोकुल में मैय्या यशोदा के अंक में जो योगमाया नवमी लगते ही अवतीर्ण हो चुकी थी, वह क्या सामान्य बच्ची थी कि वहाँ एक रूप से सोती ही रहती। वह कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड विधायिका अनन्तरूपा कभी निष्क्रिय रहती है कि इस समय निष्क्रिय रहती। वह तो अदृश्य रहकर वसुदेव जी के मस्तक पर सूप में सोये अपने स्वामी की सेवा में सदा तत्पर ही रहती है। उसके अदृश्य कर काम कर रहे थे। कारागार का अत्यन्त दृढ़, विशाल द्वार भी अनावृत्त मिला वसुदेव जी को। अनेक रक्षक थे कंस के कारागार-द्वार पर। इस आँधी वर्षा में वे भला बाहर कैसे रहते। वे द्वार के भीतर सिमट आये थे और ऐसे कुसमय में रक्षा की सावधानी अनावश्यक लगी उन्हें। न जाने कितनी रातें जगते कटी थीं। दिन में कहीं ठीक निद्रा आती है। भले आज वे पूरे दिन प्राय: सोते रहे थे; किन्तु उससे तो आलस्य और बढ़ गया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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