भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
भाद्र कृष्ण अष्टमी
देवर्षि नारद ने कहा था– ‘इतना प्रसन्न इतना चपल मैंने कभी सनकादि कुमारों को नहीं देखा था। वे मेरे ही अग्रज हैं। क्या हुआ कि सदा पाँच-छ: वर्ष की आयु जैसा शरीर बनाये रखते हैं; किन्तु उनका ज्ञान, उनकी गम्भीरता तो सर्वोपरि है। उस दिन उनके शरीर का शैशव विजय पा गया था उनकी बुद्धि पर। उस दिन उनका मन शिशु बन गया था। वे राशि-राशि पुष्प अंजलि में भरकर धरा पर न्यौछावर कर रहे थे। उनका वह भाव-विह्वल जयनाद! उस दिन तो वे महर्षि भृगु तक को उभाड़ आये– ‘समाधि छोड़ो! धरा पर समाधि का सौभाग्य आ रहा है।’ माता देवकी और वसुदेव जी के लिए अब बहुत-सी बातें स्वाभाविक हो गयी थीं और दिन में जो एक कंस की भेजी सेविका आती थी, वह हक्की-बक्की आकाश की ओर देखती रह जाती थी। वह गूंगी-बहरी थी। नगर में वह लोगों से अदभुत संकेत करती थी। उसके संकेतों का तात्पर्य कंस ही नहीं समझ पाता था तो दूसरे क्या समझते। रात्रि में-स्वप्न में ही नहीं, दिन के प्रकाश में भी अनेक बार कारागार का वह कक्ष अलौकिक सुरभि से भर जाता था। प्राय: पहले सुरभि और फिर अलौकिक पुरुषों तथा देवियों की भीड़ प्रकट हो जाती वहाँ। वह सेविका थोड़े घण्टों को ही आती थी, पर वहाँ हो तो डर के मारे किसी कोने में दुबक जाती थी। ये देवियाँ और दिव्यपुरुष वसुदेव जी की, देवकी की परिक्रमा कर जाते थे। उन्हें प्रणाम करते थे। स्तुति करते थे और कभी-कभी तो सेवा करने लगते थे। कभी कोई देवी सुगन्धित जल से स्नान करा जाती, कभी कोई अंगराग ले आती और कभी देवियों का पूरा यूथ माता को अलौकिक पुष्पों से सजा देता। ‘ये ब्रह्माजी, ये भगवान त्रिलोचन शशांक-शेखर, ये वज्रधर-देवराज और ये गणनायक’ माता देवताओं की भीड़ में बहुत थोड़ों को पहचान सकती थीं, जिनका वर्णन उन्होंने बचपन में सुना था। कुछ और को वे अवश्य पहचान लेतीं यदि वे अपने वाहनों पर आते, किन्तु कोई उनके सामने वाहन पर आता नहीं था– ‘कुमार कार्तिकेय, अग्निदेव, धनाधीश कुबेर …..’ बहुत थोड़े पहचाने जा सकते थे। देवियों में और भी कम पहचान में आती थीं। ‘ये आपकी स्तुति-पूजा करने आते हैं,यह तो उचित है; किन्तु मैं–मैं कहाँ किसी की वन्दनीय हूँ। मेरी सेवा-सम्मान ये सुर क्यों करते हैं?’ देवी देवकी ने पहली बार अपने स्वामी से पूछा था। वसुदेव जी उनकी दृष्टि में साक्षात परम पुरुष थे। अत: देवता उनकी पूजा करते दीखे तो देवकी जी की आस्था दृढ़ हुई; किन्तु अपने को लेकर ये बहुत संकोच में पड़ीं। ‘देवि! तुम्हारे अंक में मैं बार-बार जिस चतुर्भुज नीलसुन्दर कमललोचन शिशु को देखता हूँ, वे तो सर्वाराध्य श्रीहरि हैं।’ वसुदेव जी ने कहा था–उन्होंने तुम्हें माता का सौभाग्य दिया तो सुर तुम्हारी सेवा करेंगे ही। उसी के कारण तुम्हें और मुझे भी यह प्रतिष्ठा प्राप्त हो गयी है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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