भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अष्टम गर्भ
इस बार स्वत: ही शरीर त्याग गया। माता देवकी अपने गर्भपात से प्रसन्न ही हुई थीं– ‘कोई क्रूर पकड़कर उसे शिला पर पटके, इससे तो यहाँ उत्तम हुआ। बुद्धिमान निकला यह। मैं पहले ही कहती थी कि छ: बार आने वाले उस अबोध हठी से यह भिन्न है।’ इस बात की अपेक्षा भी माता को अब यह प्रसन्नता थी– ‘अब वह आठवां आवेगा। इस विपत्ति का अन्त आनेवाला है।’ कंस भी यह सोच रहा था– ‘चलो अब देवकी का अष्टम गर्भ आवेगा। आशंका और आतंक के थोड़े दिन रह गये हैं।’ प्रत्येक बार की भाँति देवकी-वसुदेवजी की परिचर्या फिर बढ़ा दी गयी थी। इस बार कंस बार-बार सेविकाओं को सावधान करता था। देवकी की दैनिकचर्या वह इस बार पूछने लगा था। ‘दो महीने तो बीत गये।’ कंस इस बार दिन गिनने लगा था। वह समझ चुका था कि देवकी लगभग तीन महीने बाद नूतन गर्भ धारण कर लेती हैं। ‘महाराज स्वयं एक बार कारागार पधारे।’ अचानक एक दिन सेविकाओं के साथ ही मुख्य कारागार-रक्षक भी कंस की सेवा में आ उपस्थित हुआ। हाथ जोड़कर काँपते हुए उसने कहा– ‘मैं नहीं जानता कि वसुदेव को क्या हो गया है। उन्हें किसी देवता ने वरदान दे दिया अथवा कोई उनमें स्वयं आविष्ट हो गया।’ ‘हुआ क्या है?’ कंस तनकर बैठ गया। ‘स्वयं देखे बिना महाराज हमारी बात पर विश्वास नहीं करेंगे।’ कारागार-रक्षक गिड़गिड़ाते हुए बोला– ‘मैंने देखना तो दूर, सुना भी नहीं था कि मनुष्य में इतना तेज होता है। आप मुझे प्राणदण्ड दे दें अथवा अन्यत्र परिवर्तित कर दें। मुझमें या मेरे किसी सहायक में शक्ति नहीं है। वासुदेव कारागार से जाना चाहें तो हम उन्हें रोक नहीं सकेंगे। अच्छा यही है कि अब तक उन्होंने किसी को कोई आदेश नहीं दिया है।’ ‘तुम चलो, मैं आ रहा हूँ।’ कंस भयभीत नहीं हुआ। इतना वह समझ गया कि जो विष्णु उसका वध करने अवतीर्ण होने वाले हैं, वे वसुदेव में आ गये हैं। वसुदेव के मानव में उनके आने से ही इतना तेज आया है। कंस कारागार आया और वसुदेव जी के कक्ष में पहुँचा तो चौंककर कई पद पीछे हट गया। ‘इतना तेज!’ कंस की कल्पना भी यहाँ तक नहीं पहुँची थी। उसने प्राय: सब देवताओं को देखा था; किन्तु इतना तेज तो किसी देवता में भी नहीं दीखा था उसे। कंस के आने पर सदा विनम्रता की मूर्ति बन जाने वाले वसुदेव जी ने इस बार केवल दृष्टि उठाकर कंस को देखा, जैसे वनराज किसी उपेक्षणीय मण्डूक को देख ले। कंस काँप गया उस दृष्टि से ही। ‘कैसे कोई वसुदेव को रोक सकता है।’ कंस की समझ में अब कारागार-रक्षक की बात आयी– ‘यह तेजोमय पुरुष सम्मुख है, यह आज्ञा दे दे कि अपना मस्तक धड़ से भिन्न करो– लगता है कि कंस इस आज्ञा को अस्वीकार स्वयं नहीं कर पावेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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