भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
शिशु हत्या
‘सेनापति को कहो, सन्नद्ध रहें।’ देवर्षि के जाते ही कंस अपने भवन से निकला। उसने द्वारपाल को आदेश दिया– ‘एक टुकड़ी मुझे अविलम्ब वसुदेव के भवन पर चाहिये। शेष सेना भी सज्जित मिले मुझे।’ द्वारपाल अभिवादन करके चला गया। कंस अपने रथ पर बैठा और उसने सारथि से रथ वेगपूर्वक चलाने को कहा। ‘कंस कहाँ जा रहा है?’ नागरिकों में अभी वसुदेव जी की प्रशंसा ही हो रही थी। ‘वसुदेव जी अपने पुत्र को कंस के समीप ले गये और उसने लौटा दिया शिशु को– तो भी शान्त ही लौटे। अब तक उनके भवन से मंगल-गान अथवा वाद्य की ध्वनि नहीं उठी। बात क्या है? कंस ने क्या कहा उनसे?’ अनेक तर्क-वितर्क नागरिकों में चल रहे थे। कंस वसुदेव जी के भवन की ओर इतने वेग से रथ क्यों ले जा रहा है?’ नागरिक चौंके– ‘इतनी-सी देर में क्या नवीन बात हो गयी?’ कुछ कुतूहलवश चल पड़े वसुदेव जी के सदन की ओर; किन्तु इन्हें पैदल जाना था और कंस का रथ तो जैसे उड़ा जा रहा था। वसुदेव जी को कठिनाई से कुछ क्षण हुए थे शिशु को सूतिकागृह में देकर लौटे कि कंस का रथ उनके द्वार पर रुका और उससे कंस कूदा। ‘युवराज! वसुदेव जी शीघ्रतापूर्वक उठ खड़े हुए; किन्तु कंस ने उनकी ओर देखा तक नहीं। वह उसी गति से अन्त:पुर में चला गया। अंगार जैसे जलते नेत्र, अत्युग्र भृकुटि, भयंकर भंगी और इतनी त्वरा-एक ही दृष्टि में वसुदेव जी ने जो कुछ देखा, उससे समझ गये कि कंस कोई अनर्थ ही करने आया है; किन्तु उन्हें कुछ भी करने-कहने का अवकाश कहाँ मिला। कंस के लिए अन्त:पुर का कोई भाग अपरिचित नहीं था। यहाँ वह अनेक बार आया था। उसकी रानियों ने देवकी जी के सूतिका गृह का पहले ही पूरा परिचय उसे दे रखा था। वह अन्त:पुर में बिना किसी ओर देखे सीधे सूतिकागृह पहुँचा। महिलायें ही थी वहाँ और उनमें भी अधिकांश कंस की सगी या चचेरी बहिनें। दासियाँ उस कक्ष से बाहर थीं और वे कंस को इतने वेग से आते देख हतबुद्धि हो गयी थीं– जहाँ-तहाँ ठिठक गयी थीं। कंस को देखते ही सूतिका-गृह की महिलायें हड़बड़ी में पड़ गयीं। वे ठीक प्रकार से एक ओर हट भी नहीं सकी थीं कि उनके मध्य से उनको लगभग धक्का-सा देता कंस भीतर घुसा। ‘भैया!’ माता देवकी ने तो कंस को तब देखा जब झपटकर उनकी गोद से पैर पकड़कर शिशु को उसने छीन लिया और लौट पड़ा था। एक आर्त चीत्कार-असहाय अबला और क्या कर सकती थी। माता उठते-उठते गिरकर मूर्च्छित हो गयीं। महिलायें हतप्रभ खड़ी रह गयीं। कोई कुछ सोचे-समझे, इतना अवसर ही कहाँ मिला। कंस शिशु को लिये सूतिका-गृह से बाहर आया और वहाँ उस पिशाच ने चरणों से पकड़े उस नवजात शिशु को घुमाकर एक शिला पर पटक दिया। शिशु का नन्हा–सा सिर चूर-चूर हो गया। शिला रक्त से लथपथ हो गयी। कंस के वस्त्रों पर रक्तक के छींटे उसके पाप की साक्षी बन गये। वहीं शिशु का शव हाथ से फेंककर कंस वसुदेव जी के सम्मुख आ खड़ा हुआ। अब उसने खड्ग खींच लिया था–‘तुम बन्दी किये गये।’ देवकी भी। उसे पुकार लो और चुपचाप रथ पर बैठो। भयंकर स्वर में आज्ञा दी उसने। ‘अच्छा युवराज!’ वसुदेव जी ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। जो कुछ हो चुका था, उसे उन्होंने देख लिया था और इतना समझने को पर्याप्त था कि इस समय कंस से कुछ कहना व्यर्थ है। ‘देवकी को ले आओ!’ वसुदेव जी ने प्रांगण में आ गयी महिलाओं की ओर देखकर कहा। अब तक उनमें-से किसी के कण्ठ से चीत्कार तक नहीं निकला था। भय ने उन्हें लगभग जड़ बना दिया था। यन्त्र-चालित भाँति उनसे कई भीतर मुड़ गयीं। हाथों पर उठाकर लायी गयी देवकी जी को उसी मूर्च्छितावस्था में उन्होंने द्वार पर खड़े रथ पर वसुदेव जी के संकेत के अनुसार रख दिया। वसुदेव जी स्वयं रथ पर बैठ गये। तब कंस बैठा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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