भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
उपक्रम
वसुदेव जी के सगे भाई देवभाग के पुत्र वृहद्वल का ही दूसरा नाम है उद्धव। देवगुरु बृहस्पति को प्रसन्न करके इन्होंने उनसे नीतिशास्त्र का अध्ययन किया। श्रीकृष्णचन्द्र के अन्तरंग सखा और यादव-प्रशासन के प्रमुख मन्त्री रहे; किन्तु संसार में प्रकृति के साम्राज्य में तो कुछ नित्य नहीं है। द्वारिका समुद्र के गर्भ से जैसे निकली थी, वैसे ही समुद्र ने उसे उदरस्थ कर लिया। यदुवंश का नाम लेने वाला एक शिशु मात्र बचा-प्रद्युम्न का पौत्र वज्रनाभ। स्वयं भगवान वासुदेव स्वधाम चले गये। बच गये उद्धव जी उस महासंहार से। सम्पूर्ण स्ववंश अपने सामने नष्ट हो जाय और कोई अकेला बच जाय- क्या अवस्था होगी उसकी? ऐसा कुछ नहीं हुआ था। श्रीकृष्ण सर्वेश्वरेश्वर, सर्वसमर्थ–साथ ही अनन्त करुणासागर। उन्होंने यदि उद्धव को बचा दिया तो अपनी अमृतवाणी से-अपने अन्तिम उपदेश से शोक-मोह से ऊपर भी उठा दिया। उद्धव को वह परम ज्ञान मिल गया था जिससे लौकिक प्रध्वंस की छाया उनके चित्त को नहीं छूती थी, किन्तु श्रीकृष्ण का वियोग-यह वियोग भी क्या सहने योग्य है? श्रीकृष्ण कभी वियुक्त नहीं होते। वे अन्तर्यामी नित्य प्राप्त रहते हैं-उद्धव के हृदय में वे चर्तुर्भुज वनमाली नित्य प्रकट–किन्तु जो जीवन भर उन आनन्द घन के साथ लगा रहा हो, उनके ही पहिने वस्त्र पहिनने और उनके ही उच्छिष्ट थाल का प्रसाद लेने का व्रती रहा हो, जिस उन्होंने स्वयं रात-दिन पलकों पर रखा हो, उसे क्या अन्तर में अन्तर्यामी की उपस्थिति तुष्ट कर पाती है? अपने स्वामी - अपने परम स्नेहमय स्वामी-अपने भाई? नहीं, उद्धव ने कभी श्रीकृष्ण को भाई नहीं माना। यह तो उन सर्वेश्वर स्वामी का औदार्य था कि वे उद्धव को सदा छोटे भाई के रूप में लेते रहे-वात्सल्य देते रहे। आज उन्हीं वात्सल्य धाम स्वामी का आदेश-अन्तिम आदेश पालन करने जाना है उद्धव को। उस आदेश के पालन की शक्ति उन सर्वसमर्थ ने दे दी है। आदेश भी किया? स्वयं उद्धव के परम कल्याण के लिए आदेश है- ‘बदरिकाश्रम में जाकर भगवान नर-नारायण की कृपा प्राप्त करो, तप करते हुए।’ उद्धव को अपना कल्याण नहीं दीखता। अपनापन श्रीकृष्ण के उपदेश के पश्चात भी कहीं रह सकता है? उद्धव को तो दीखता है केवल अपना वह परमोदार स्वामी; और उसका आदेश है, अत: उसे टाला नहीं जा सकता। वे चल पड़े हैं और द्वारिका से चलते हुए मथुरा के पास यमुना–तट पहुँच गये हैं। यह मथुरा-यह कालिन्दी, यहीं समीप ही व्रज है। किन्तु नहीं-श्रीकृष्ण नहीं हैं तो इन सब पर किस की दृष्टि जाती है। उद्धव को यह स्थान और अधिक व्याकुल करता है। यमुना-स्नान हो गया। व्रजधरा के दर्शन कर लिये- इस पावन रज को मस्तक से लगा लिया; किन्तु यहाँ रुका नहीं जा सकता। स्वामी का आदेश-बदरिकाश्रम जैसे पुकार रहा है उद्धव को। सायंकाल हो चुका है, अन्यथा उद्धव यहाँ रुकने का नाम नहीं लेते। ‘पितृत्व आप!’ अचानक एक अवधूत प्राय व्यक्ति जैसे दौड़ते आकर उद्धव को भुजाओं में भर लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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