भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
उपसंहार
पट्टमहिषियां तो अपने आराध्य के वियोग में देह त्याग चुकी थीं। जो देवांगनाएं थीं, उन्हें गोपरूपधारी देवता पार्थ से छीन ले गए थे। केवल नित्य सहचरियां बची थीं जिन्हें व्रज लीला के प्रवेश का नित्याधिकार मिलना था। इसका वर्णन नन्दनन्दन में मिलेगा। भगवान वासुदेव धरा का त्याग करके स्वधाम पधारे। अर्जुन के मुख से यह सुन कर धर्मराज युधिष्ठिर तथा उनके भाइयों को भी पृथ्वी रहने के अयोग्य ही लगी। महाप्रस्थान से पूर्व अर्जुन के पौत्र परीक्षित का हस्तिनापुर के सिंहासन पर अभिषेक कर दिया और वहीं धर्मराज ने मथुरा- मंडल के अधिपति पद पर वज्रनाभ का तिलक किया। पाण्डव हिमालय की ओर चले गए। महाराज परीक्षित सम्राट हुए। वज्रनाभ उनके संबंध में भ्रातृपुत्र होते थे। बड़ा स्नेह था परीक्षित का वज्रनाभ पर। वज्रनाभ को तथा श्रीकृष्ण – पत्नियों को मथुरा विदा करके बहुत शीघ्र ही वे उनसे मिलने चल पड़े थे। मथुरा नगर लगभग सौ वर्ष से जनहीन रहा था। आपने कोई प्राचीन खण्डहर देखा है? मथुरा की अवस्था का अनुमान इससे नहीं किया जा सकता। मथुरा अद्भुत प्राणिहीन प्रदेश हो गया था। मथुरा के भवन टूटे नहीं थे। नगर परिखा तक सुरक्षित थी। सब पथ ज्यों के त्यों थे। सभी चत्वर, सभा भवन ज्यों के त्यों, किंतु सर्वत्र बहुत मोटी धूलि जमा थी। लगता था कि पूरा नगर मरुभूमि में कुछ नीचे धंस गया है। धूलि शिखरों से भवनों के भीतर तक सर्वत्र धूलि की मोटी तह। मथुरा के बाहर और नगर में भी न कहीं कोई वृक्ष रहा था, न लताएं थीं, न तृण। कहीं काई जमी भी हो तो सूख कर काली हो गई थी। नगर में तो कही भी एक तृण की हरियाली देखने को नेत्र तरसते थे। संपूर्ण व्रज की अवस्था इससे कुछ अधिक अच्छी नहीं थी। वृक्ष थे, लताएं थीं, क्षुप थे, तृण भी थे, किंतु जैसे थे? राजकम्ब, पाटल कदम्ब, मौलिश्री आदि का नाम नहीं था कहीं। वृक्षों में कठकदम्ब, शमी, पापड़ी, बबूल रह गए थे। लताओं में केवल कंटीली झाड़ियां, क्षुपों में करील, तृणों में गोखरू और कण्टक – तृण। ये सब वृक्ष, लताएं, क्षुप, तृण भी दूर दूर, एकाकी, श्री हीन – ऐसे कि कहीं बाहर से आ गए हों। मानो बाहर से व्रजभूमि के लोभ से तपस्या करने से आए हों और कहते हों – हमारे समीप मत आओ। हमारा स्पर्श मत करो। हमको अपनी साधना करने दो। कोई दो वृक्ष, लता, तृण भी समीप नहीं। न सघनता, न शोभारस का कहीं नाम नहीं। धरा रेणु का प्रधान, यमुना सूखी प्राय, जैसे उनमें जल नहीं अश्रु बहता हो। गिरिराज गोवर्धन पर काई लगी शिलाएं। कहीं निर्झर नहीं। कहीं वापी, सरोवर नहीं। सब सूखे, मिट्टी से भरे। मानसी गंगा का जल काई से भरा जैसे किसी शोक में वह मलिना क्षीणा बन गई है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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