भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कालयवन
शाल्व– आपका पुत्र दुर्जय है। उसने देवताओं के लिए भी दुर्लभ भार्गवास्त्र अपने तपोबल से प्राप्त किया है, किंतु श्रीकृष्ण का चक्र तो समस्त अस्त्रों–ब्रह्मास्त्र तक को शांत कर देने में समर्थ है। कोई नहीं जानता कि उनके चक्र और पाशुपतास्त्र में कौन अधिक प्रभावशाली है। पाशुतास्त्र भी है उन दोनों भाइयों के पास। संसार में एक ही वीर है जो बलराम–श्रीकृष्ण के लिए अजेय है। कौन है वह? एक साथ कई ने पूछा। आप सब उत्सुक हैं तो मैं उसका पूरा परिचय देता हूँ। शाल्व ने परिचय प्रारंभ किया। वसुदेव की एक पत्नी वृक देवी हैं। उनके पिता त्रिगर्तराज के राजपुरोहित शैशिरायण थे। गर्ग गोत्रीय होने से उन्हें गार्ग्य भी कहा जाता है। उन्होंने विवाह करने से पूर्व ही संकल्प कर लिया था कि वे बाहर वर्ष तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करेंगे। विवाह कर लिया उन्होंने, क्योंकि आजीवन ब्रह्मचर्य रखना नहीं था। कन्या के पिता श्रद्धा सहित कन्यादान करने पहुँचे तो अस्वीकार कैसे कर देते। यह नपुंसक है। इसने मेरी बहिन का जीवन नष्ट कर दिया। पत्नी के छोटे भाई को जब पता लगा कि शैशिरायण तो विवाह करके भी पत्नी से दूर रहते हैं, उन्हें देखते तक नहीं तो बहिन की व्यथा का अनुभव करके छोटा भाई क्रोध में भर गया। उसने सार्वजनिक रूप से बहनोई पर आरोप किया। इस आरोप का क्या उत्तर था–जो कुछ कहा जाता, उसे अपनी दुर्बलता छिपाने का लोग बहाना मानते और व्रत भंग करना नहीं था। बड़ा क्रोध आया शैशिरायण को–इतना क्रोध कि उससे उसका शरीर काला पड़ गया, किंतु वे उस समय मौन रहे। कठोर ब्रह्मचर्य का पालन वे गार्ग्य मुनि कर ही रहे थे। केवल लौहचूर्ण खाकर तपस्या प्रारंभ कर दी उन्होंने। भगवान रुद्र प्रसन्न हुए–वरदान मांगो। गार्ग्य शैशिरायण–मुझे ऐसा पराक्रम पुत्र चाहिए जो यदुवंश की सब शाखा के लोगों के लिए अवध्य हो। एवमस्तु! वरदान देकर शंकर जी अपने धाम चले गए। शैशिरायण लौटे तपोवन से। उन्हें अब त्रिगर्त जाना नहीं था। पुत्रहीन यवनराज को उनके वरदान का समाचार मिल गया था। वे स्वयं जाकर आदरपूर्वक गार्ग्य को अपने यहाँ ले आए। यवनराज के यहाँ एक अप्सरा गोपनारी के वेश में रहती थी। उसका नाम गोपाली पड़ गया था वहां। उसे मुनि की सेवा में यवनराज ने नियुक्त कर दिया। उस अप्सरा के गर्भ से मुनि को जो पुत्र हुआ, उसका नाम कालयवन पड़ा। यवनराज ने उसे पाला और अपना उत्तराधिकारी बनाया। अब यवनराज के परलोकवासी हो जाने पर यही कालयवन म्लेच्छाधिप है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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