भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अक्रूर के भवन में
अक्रूर ने सुन लिया था कि श्री राम कृष्ण उसी दिन, बिना बुलाए सुदामा माली के घर सखाओं के साथ गए। वह महाभाग मालाकार धन्य है। मथुरा में रहते हुए भी तो उसने कंस की एक दिन भी सेवा नहीं की। कंस के रुष्ट होने की ही कब चिंता की उसने। उसने तो अपनी आय के सब साधन स्वयं त्याग दिए। भगवान वासुदेव से अधिक कौन प्रीति को पहचान सकता है। वे उस मालाकार के घर स्वयं गए तो क्या आश्चर्य। वह उनके सेवक का घर था। श्रीकृष्ण गुरु-गृह से लौटे और सैरन्ध्री के घर गए। सर्वेश्वर–उनको किसी से कुछ छिपा कर करने की आवश्यकता कहाँ है। दासी सही कुब्जा–उसके साहस, उसके त्याग, उसके समर्पण की कोई स्पर्धा कैसे करेगा। कंस जीवित था–मथुरा का सर्वतंत्र स्वतंत्र अधिपति था और उसके लिए जाने वाला अंगराग कुब्जा ने राम कृष्ण को दिया था। वह वहीं से घर लौट गई। उसने तो ध्यान नहीं दिया कि कंस प्रतीक्षा करेगा अंगराग के लिए उसकी। रुष्ट होकर कुछ अनिष्ट भी कर सकता है। इतनी निर्भयता–इतना साहस–श्रीकृष्ण सैरन्ध्री के इस समर्पण का सम्मान न करें तो उन्हें भक्त वत्सल कैसे कोई मानेगा? कहाँ है अपने में साहस! कहाँ हैं उनके श्री चरणों में प्रीति! कहाँ है उनका विश्वास–उन पर निर्भरता! अक्रूर! तुमने तो सब कुछ जानते हुए उन्हें संकटों के मध्य–मृत्यु के मुख में पहुँचा देने में कोई बात अपनी ओर से बाकी नहीं रहने दी। तुमने कंस का अभिप्राय उन्हें बतला दिया–बड़ी कृपा की। तुम झूठ नहीं बोले, बस यही तुम्हारी महानता है। तुम कैसे आशा कर सकते हो कि वे भुवन पावन तुम जैसे कंस के सेवक के भवन पधारेंगे? 'हे अधोक्षज! आप मेरे भवन पधारें। कितनी धृष्टता थी तुम्हारी–तुमने यह प्रार्थना करने का साहस किया और स्पर्धा तो तुम्हारी बहुत बड़ी है–तुमने दैत्येंद्र बलि, सगरात्मजोंं तक का ही नहीं–भगवान गंगाधर तक का नाम लिया। तुम चाहते थे कि तुम भी इनके समान उन परम पुरु के श्रीचरण प्रक्षालन का सौभाग्य प्राप्त करो। तुमने पितर, देवता अग्नि सब एक साथ परम तृप्त कर लेने चाहे। अपने भवन को तीर्थ बना देने की कामना की–कंस के सेवक का भवन और तीर्थ बन जाए! तुमको उन परम समर्थ ने तिरस्कृत नहीं कर दिया–सम्मान देकर विदा किया, यह उनका शील, उनका अनुग्रह, किंतु तुम्हारी स्पर्धा तो तिरस्कार ही पाने योग्य है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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