भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
उद्धव लौट आए ब्रज से
उद्धव व्रज से आए– धूलि धूसर सर्वांग, विह्वल होकर बार बार व्रज रज में लोट पोट हुए, डगमग पद, रोमांचित देह, नेत्रों से चलती अजस्र बारि धारा जैसे कुछ देखते नहीं, कुछ सुनते नहीं, लाल-लाल लोचन, चकित होकर इधर–उधर देखते हैं–कहाँ किस अपरिचित स्थान में आ गए। दौड़ पड़े श्रीकृष्ण चंद्र। गिर गया पीत पट। स्रस्त वन माला, तिरछा हुआ मुकुट। दोनों भुजाएं फैला कर उद्धव को– व्रज प्रेम परिपूत उद्धव को हृदय से लगा लिया। हृदय से लगाए ले गए अपने सदन के भीतर। श्री कृष्ण तुम- तुम इतने निर्मम हो? उद्धव ने घूर–घूर कर देखा। आज उद्धव कुछ दूसरे हो रहे हैं। कुछ दूसरे बन आए हैं–अन्यथा परम विनीत उद्धव, श्रीकृष्ण के नित्य सहचर, अपने को दास कहने वाले उद्धव ऐसे बोल पाते– तुम इतने निष्ठुर हो? व्रज नहीं जाता तो तुमको कभी पहिचान नहीं पाता। श्रीकृष्ण का शरीर रोम–रोम पुलकित हो रहा है। इनके कमल नयन भर आए हैं। ये सस्मित दृग देख रहे हैं उद्धव की ओर और उद्धव लाल नेत्रों से घूरते जा रहे हैं। अद्भुत भंगी में, बड़े कठोर ढंग से मानो भर्त्सना कर रहे हैं– तुम व्रज छोड़ कर यहाँ आ बैठे हो अब तक? व्रज छोड़ कर– व्रज की उन प्रेमैक देह पावन प्रतिमाओं को छोड़ कर तुम एक दिन को भी आ कैसे सके? तुमको प्रेममय कहा जाता है? प्रेम को तुम पहिचान पाते हो? उद्धव आज अपने को भूल गए हैं। आज वे व्रज के बन चुके हैं। व्रजवासियों के प्रतिनिधि बन गए हैं। उन्हें स्वत्व मिल गया है कि श्रीकृष्ण की जी भर कर भर्त्सना करें– यहाँ क्या काम है तुम्हारा? क्यों हो तुम मथुरा में? तुम किसके लिए यहाँ हो? कंस मर गया। यदुवंशियों का संकट मिट गया। यह न भी होता, सृष्टि में कोई प्रलय नहीं हो रही थी कि तुम व्रज छोड़ कर दौड़े चले आए यहाँ। तुम मथुरा से अभी चलो! कल नहीं, परसों नहीं। आज भी नहीं, अभी चलो! इसी समय चलो! मेरे साथ! उद्धव ने हाथ पकड़ा– विश्वास करो, तुम्हारे यहाँ से चले जाने पर भी यहाँ कोई मरेगा नहीं तुम्हारे वियोग में। मथुरा के लोगों में इतना प्रेम नहीं है। ये लोग रोएंगे–दो चार दिन रोएंगे और बस। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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