भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कुब्जा की प्रतीक्षा
मैं तुम्हारे गृह आऊँगा। उन्होंने उस दिन वचन दिया था। कुब्जा कहाँ महारानी है कि उसे बुलाने को शिविका भेजनी पड़ती। वह स्वयं चली जाती–एक नहीं, सहस्र-सहस्र बार पैरों पर चल कर उनके द्वार के चक्कर काटती। दासी का क्या मान और क्या अपमान। द्वारपाल बहुत करते, झिड़क देते। लोग परिहास ही तो करते–पहले क्या कम परिहास किया है लोगों ने उसका। इसमें नवीन क्या था उसके लिए। वह चाहे जब अपने हृदयहारी प्राणों के स्वामी के चरण जाकर पकड़ लेती–अञ्चल फैला कर गिड़गिड़ाती। वे घनश्याम उसे झिड़क ही तो देंगे–झिड़क लेंगे। वे तो उस दिन भी झिड़क दे सकते थे, किंतु वे परमोदार–उन्होंने तो सम्मान दया–वचन दिया–तुम्हारे घर आऊँगा। वह नहीं जा पाती–वह तुच्छ दासी है, इसलिए तो नहीं जा पाती। उसके जाने से उन्हें संकुचित होना पड़ेगा। लोग उन्हें पता नहीं क्या क्या कहेंगे। उनका अयश हो–उन्हें संकोच हो, यह कैसे कर पाएगी वह। उन्होंने स्वयं आने को कहा है–वे आएंगे ही। वह प्रतीक्षा कर रही है। यहीं प्रतीक्षा करेगी वह। वे आते ही होंगे। अद्भुत प्रतीक्षा है कुब्जा की। प्रात: अंधेरे ही वह दासियों से खीजने लगती है कि उसे शीघ्र क्यों नहीं जगाया उन्होंने। अभी गृह परिमार्जित नहीं हुआ, कक्ष सज्जित करना है, शैय्या किसलय और कुसुम बदलने हैं, श्रृंगार करना है अपना। वह क्या उनके सम्मुख ऐसे ही चली जाएगी? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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