भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
शिक्षण-प्रशिक्षण
अन्तेवासियों ने सहास्य एक-दूसरे की ओर देखा– ‘ये दोनों भाई सुन्दर बहुत हैं; किन्तु यह कृष्ण कुछ अधिक ही चपल है। अब क्या सुनावेगा यह? कल ही तो इनका अध्ययन प्रारम्भ हुआ है। महर्षि ने मुहूर्त का सम्मान करने के लिए वेदों की चारों मूल संहिताओं के कुछ मन्त्र पढ़ दिये। छ: वेदांगों के थोड़े सूत्र बोल दिये। मध्याहोत्तर धनुर्वेद का श्रीगणेश कर दिया। ‘अल्पारम्भा: क्षेमकरा:’ यही तो था कल। अब इस कृष्ण ने कहीं से एकाध मन्त्र स्मरण कर लिये हैं और सुनाने उठ खड़ा हुआ है।’ ‘सुनाओ वत्स!’ परम गम्भीर सान्दीपनि जी के मुख पर स्मित आया। उन्होंने अनुमति दे दी। ‘कौन है–कौन हैं ये?’ अचानक सब छात्र और अन्तेवासी भी चौंक गये– ‘कृष्ण क्या माता के उदर से सब पढ़कर आया है?’ कृष्ण तो सुनाते ही जा रहे हैं। सरस्वर ऋग्वेद की ॠचाएं–वे सब ॠचाएं भी जो विद्यार्थियों ने प्रयोजनवशात पाठ की थीं। सविधि सामगन। यजुर्वेद का मुद्रा सहित पाठ। अथर्व के मन्त्र का उच्चारण। निष्कम्प स्वर, स्पष्ट उच्चारण, निर्दोष मुद्रायें, अदभुत करचालन? महर्षि और उनके अन्तेवासी अपलक देखते रह गये– ‘कृष्ण तो बोलता जा रहा है। इसने केवल एक बार सुनकर क्या पूर वेद कण्ठ कर लिये?’ ‘भगवन! मैंने मथुरा में आचार्य और विप्रवर्ग को कई प्रकार से ॠचाओं का पाठ करते सुना है।’ अब कृष्ण का घनपाठ, जटापाठ, माला-पाठ, शिखापाठ, पताकापाठ चलने लगा है। सब स्वर, सब शैलियाँ क्या कृष्ण के कण्ठ में ही निवास करती हैं? यही तो श्रुतिपुरुष नहीं है? ‘वत्स कृष्णचन्द्र!’ महर्षि दोनों भुजाएं फैलाकर उठे और उन्होंने अपने इस शिष्य को हृदय से लगा लिया। ‘यह उनका शिष्य है?’ महर्षि के नेत्रों से आनन्दाश्रु झरने लगे। ‘गुरुदेव! इतना तो मैं भी सुना सकता हूँ।’ मस्तक भूमि में रखकर अंजलि बाँधकर राम खड़े हुए। ‘अवश्य सुना सकते हो आयुष्मन्!’ जब छोटे भाई ने सुना दिया तो बड़ा सुना देगा, इसमें किसी को सन्देह भला कैसे हो सकता है। महर्षि ने कहा– ‘किन्तु इसकी आवश्यकता नहीं है। मैं नूतन पाठ दे रहा हूँ। तुम दोनों पढ़ो।’ महर्षि समझ चुके कि ये पढ़ने आये हैं केवल मर्यादा-रक्षा के लिए। इनका पढ़ा कौन सकता है। लेकिन जब ये पढ़ने आये हैं, ऐसे श्रुतधर छात्र मिले हैं तो शिक्षक अपनी विद्या का सार्थक क्यों न कर ले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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