भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
पितृ-मिलन
वसुदेव-देवकी वस्तुत: अब बन्दी नहीं थे। महाराज उग्रसेन जैसे ही अपने मंच से उठे थे और उस मंच के प्रहरियों ने मस्तक झुकाकर उन्हें मार्ग दिया था, वसुदेव-देवकी के मंच के प्रहरी सचेत हो गये थे। वे अंजलि बाँधकर, अत्यन्त दयनीय मुद्रा में, मानों प्राणों की भिक्षा माँग रहे हों, इस प्रकार वहाँ खड़े थे। वसुदेव-देवकी उठना चाहते तो उन्हें अब रोकने का साहस करने वाला कोई नहीं था। प्रहरी तो अब उनके सेवक मात्र थे; किन्तु वे उठना चाहते–उनसे उठा जा पाता तब तो। उनका तो अंग-अंग जैसे जकड़ गया था। उठना तो दूर, बोल भी नहीं पा रहे थे वे। उनके नेत्र खुले थे। नेत्रों से अविरल अश्रुधारा चल रही थी, केवल यही लक्षण था कि वे जीवित बैठे हैं। ‘उनके पुत्र!’ लेकिन कौन पुत्र उनके? उनके हृदय में तो मन्थन चल रहा था– ‘ये श्याम-गौर पुत्र हैं उनके?’ ‘भगवान वासुदेव की जय!’ वसुदेव-देवकी की इस जयघोष से चौंक-चौंक पड़े हैं– ‘भगवान साक्षात-परमपुरुष परमात्मा ही तो हैं ये। ‘इन्होंने कंस के सब असुर मार दिये!’ कारागार में और उससे पूर्व भी सुना था– ‘पूतना, उत्कच, तृणावर्त, वत्स, अघासुर, व्योमासुर, धेनुक, अरिष्ट और केशी। कालियनाग को यमुना से निकाल दिया। गोवर्धन को सात दिन हाथ पर उठाये रहे और इन्द्र का गर्व नष्ट कर दिया। भगवान हैं ये।’ कहाँ महागज कुवलयापीड और कहाँ इनका यह सकुमार श्रीअंग! अभी-अभी सामने पड़े हैं इनके मारे भूधराकार कंस के महामल्ल और स्वयं कंस का शव पड़ा है वह अपने भाइयों के शव के मध्य मल्लभूमि में। धरा का भार दूर करते श्रीनारायण ने अवतार लिया है। ये साक्षात् श्रीनारायण।’ वसुदेव और देवकी के हृदय में वह सूतिकागृह में देखी शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी चतुर्भुज, वनमाली मूर्ति प्रकट हो गयी है। उन्हें सम्मुख द्विभुज खड़े श्रीकृष्ण चतुर्भुज होने लगे हैं। ‘वसुदेव की जय! महाभाग देवकी की जय!’ नागरिकों के कण्ठ अब इस जयघोष में उल्लसित लगने लगे हैं। श्रीकृष्णचन्द्र ने महाराज उग्रसेन का संकोच समझ लिया था। मुड़कर बड़े भाई का हाथ पकड़ा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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