भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
धनुर्भंग
नागरिक समीप आ गये हैं। उनकी चन्दन लगाने, आरती करने की अर्चना अब बढ़ गयी है। अब वे उपहार लिये आगे भी आ खड़े होते हैं। गोप बहुत प्रशंसा करते थे धनुष की। वह अत्यन्त विशाल है। बहुत भारी है। बहुत सुन्दर है। भगवान शंकर का त्रिपुरघ्न पिनाक तो त्रेता में श्रीराम ने जनकपुर में तोड़ दिया था। उसे उन आशुतोष ने निमि को दिया था। उन वृषभध्वज ने अपना निज धनुष अपने प्रिय शिष्य परशुराम जी को दे दिया। भगवान परशुराम ने उसे दे दिया कंस को। कंस स्वयं उसकी अर्चना करता है। कैसा होगा वह धनुष? कृष्णचन्द्र के मन में कौतुहल होना स्वाभाविक है। उनके पूछते ही गोपकुमार भी धनुष देखने के लिए उत्सुक हो उठे। ‘धनुष राजभवन के ही एक भाग में विशाल प्रांगण के मध्य रखा है।’ नागरिक ने बतलाया– ‘सैनिकों का एक दल सशस्त्र प्रमादहीन होकर उसकी रक्षा करता रहता है। नागरिक द्वार पर से उसका दर्शन करके प्रणाम कर सकते हैं। धनुष के समीप तक किसी को जाने नहीं दिया जाता;किन्तु आप द्वार पर से उसे देख सकते हैं।’ ‘धनुष-यज्ञ क्या है?’ श्यामसुन्दर ने पुन: उसी नागरिक से पूछ लिया। ‘महाराज कभी जब उनकी इच्छा हो या उनके पुरोहित सत्यक जी आदेश करें, यह महोत्सव करते हैं। इधर अनेक वर्षों से यह नहीं हुआ है।’ नागरिक ने कहा– ‘सत्यक जी कहते हैं कि यह एक प्रकार का माहेश्वर यज्ञ है।’ ‘होता क्या है इसमें?’ सहज प्रश्न था। ‘एक ओर भूतेश्वर का पूजन चलता रहता है। वहाँ बहुत से पशुओं की बलि दी जाती है।’ उस नागरिक के स्वर में वितृष्णा का भाव स्पष्ट था– ‘दूसरी ओर रंगशाला में धनुष लाया जाता है वेद पाठ, स्तवन तथा वाद्यघोष के साथ। महाराज उसका अर्चन करते हैं। इसके अनन्तर राजकीय घोषणा होती है– ‘कोई अपने को समर्थ समझता हो तो शाम्भव धनुष उठाने आगे आ सकता है; किन्तु यदि धनुष उससे भूमि से नहीं उठा तो उसकी बलि दे दे जायेगी धनुष को।’ ‘आज तक किसी ने धनुष के स्पर्श का साहस नहीं किया है।’ नागरिक कह रहा था– ‘इतना भारी धनुष है कि उसे भूमि से तिल भर भी उठा पाना कठिन लगता है सबको। लोग कहते हैं कि मगधराज जरासन्ध सम्भवत: उठा सकते हैं। उठा सकते होंगे; किन्तु वे कभी आये नहीं अपने जामाता के इस महोत्सव में।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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