भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
दर्जी की कला कृतार्थ हुई
मथुरा का राजकीय वायक है गुणक। उसे आज शाम तक महाराज के वस्त्र दे देने हैं सीकर। अब तक वह अपने वचन का पक्का रहा है। किसी को जो समय कहेगा, उसी समय उसके वस्त्र प्रस्तुत मिलेंगे। लेकिन गुणक में भी एक दोष है–अच्छे कलाकार के लिए शोभा देने वाला दोष। वह किसी के यहाँ बुलाने पर भी नहीं जाता। महाराज को भी अपना माप देने स्वयं आना पड़ता है और सेवक भेजकर वस्त्र मँगाने पड़ते हैं। दूसरी बात–गुणक अपने पारिश्रमिक में मोल-भाव नहीं सुन सकता। उसके मुख से जो निकल जाय, वही सिलायी उसे देनी होगी। वह किसी के वस्त्र सीना स्वीकार कर ले–यह उसका बड़ा अनुग्रह। प्राय: वह कह देता है– ‘अभी अवकाश नहीं है।’ गुणक कला का धनी सही–वैसे कंकाल ही है। काम ही नहीं करेगा तो धन कहाँ से आवेगा। राजा के यहाँ का और दूसरों का भी जो थोड़ा काम कर देता है, उससे मिला पारिश्रमिक अपने यहाँ सिलायी सीखने आने वालों को खिला देता है। वह तो मानो एक सिलाई महाविद्यालय चलाता है। अपनी उस दुकान से गुणक कभी पर्व पर ही यमुना स्नान करने उतरता हैं। आज वह दुकान से उतरा तो नागरिकों को आश्चर्य हुआ। हाथ में कैंची लिये वह दुकान से उतरा और सीधे श्रीकृष्ण के सम्मुख जाकर कैंची लिये-लिये ही हाथ जोड़कर खड़ा हो गया– ‘आप अनुमति दें तो आप सबके वस्त्रों को शरीर के अनुरूप सजा दूँ।’ ‘अवश्य भद्र।’ कृष्णचन्द्र मुस्कराये। बड़े भाई की ओर संकेत करके बोले– ‘किन्तु हमें शीघ्रता है। तुम झटपट वस्त्र ठीक कर दो।’ गुणक ने बिना बोले काम प्रारम्भ कर दिया। उसमें कला है, यह सब जानते थे; किन्तु इतनी स्फूर्ति है, यह लोगों को आज दिखायी पड़ा। वह श्रीबलराम के चारों ओर घूम गया। कहीं वस्त्रों को खींचकर मोड़ा, कहीं कुछ काटा, कहीं सुईंं से दो-चार टांके लगाये और लो वह तो श्रीकृष्ण के समीप पहुँच गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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