भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
साकार तत्त्व
श्रीकृष्ण तो नित्य हैं। इस दृश्य जगत में अपनी इच्छानुसार व्यक्त होते हैं और फिर स्वधाम पधारते हैं। भगवद् धामों की संख्या पाना कठिन है। उन अनन्त के अनन्त धाम। शास्त्रों में प्रमुख धामों का वर्णन है। धाम मायातीत हैं, चिन्मय हैं। वे अनेक होकर भी एक हैं, अभिन्न हैं। उनमें परम प्रभु अपने विभिन्न रूपों में उन-उन रूपों के अनुरूप पार्षदों परिकरों के साथ विराजते और नाना क्रीड़ा करते हैं। सत्ता है- यह सब पर प्रकट है और यह सत्ता का ही स्थूल रूप है जो प्रकृति का तमोगुण कहा जाता है। प्रकृति का अर्थ ही है स्वभाव। उस परम तत्व का स्वभाव है कि उसकी सत्ता स्थूल तत्व ग्रहण करती है- पदार्थ बनती है। सत्ता का घनीभाव है पदार्थ। वह सत्ता जड़ नहीं है- चेतन है, उसका स्वभाव है प्रकाशित होना। वह प्रकाशित न हो तो पता ही कैसे लगे कि सत्ता है। प्रकाश, गति, उष्णता, जीवन, ज्ञान- ये एक चित्त के ही अनेक रूप-विवर्त हैं। सत्ता जब स्थूल होती है तो पदार्थ बनती है और चित् तत्व तब उसमें गति, उष्णता, प्रकाश,जीवन के रूप में व्यक्त होता है। सत-चित पृथक-पृथक हो नहीं सकते; क्योंकि चित यदि सत नहीं होगा तो होगा ही नहीं। इस अभिन्नत्व के कारण सत के घनीभाव पदार्थ में जड़त्व की भ्रान्ति होती है और तब लगता है कि गति से उष्णता, प्रकाश, जीवनादि व्यक्त हुए हैं। वस्तुत: ये गति के ही दूसरे रूप हैं और गति स्वयं में चित्त है- ज्ञान है। केवल अभिन्न सत्-चित् नहीं- वह आनन्द भी है। लेकिन सत्ता घनीभूत हुई तो वह आनन्द का आवरण बन गयी। आवरण ही जीव देख पाता है। उसे लगता है कि सत्ता ही अनावरित है। सत्ता ही सत्य है। इसी भ्रम में जड़वाद उत्पन्न होता है। वह भूल ही जाता है कि सत्ता ज्ञान से अभिन्न न होती तो अपना ही रहस्य-ज्ञान कैसे कराती। लेकिन ज्ञान अल्पावरित है और आनन्द प्राय: पूर्णावरित हैं। इसका परिणाम है कि प्राय: प्रत्येक मनुष्य अपनी समझ को सर्वश्रेष्ठ मानता है- अपने में ज्ञान देखता है, किन्तु महापुरुषों को छोड़ दें जो अविद्या के आवरण से बाहर हो चुके, तो शेष सब अपने को सुख से सदा दूर पाते हैं, अपने सुख, अपने भोग, अपने आनन्द से सब असन्तुष्ट हैं और सब आनन्द की प्राप्ति के लिए अपने-अपने ढंग से व्यस्त हैं। यदि आनन्द हो ही नहीं तो सबकी व्यस्तता का अर्थ? सुख पाने की कल्पना – आशा सब को भ्रान्त किये है और वह सुख-आनन्द कहाँ है, इसके दिशा-निर्णय में सब भटक गये हैं। परमतत्व सच्चिदानन्द है और उसका यह स्वभाव है- प्रकृति है कि सत्ता तमस होकर, चित रज होकर और आनन्द सत्व्र होकर जगत के रूप में प्रतीत होती है। यही सत्व, रज, तम जब साम्यावस्था में होते हैं तो प्रलय काल रहता है और जब विषम होते हैं तो सृष्टि हो जाती है। यह अनादि परम्परा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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