भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
फिर आये देवर्षि
‘मैं ठगा गया!’ कंस चौंका। दूसरे ही क्षण हँसा– ‘देवता भी झूठ बोलते हैं और आप भी छल करते हैं, यह नहीं जानता था।’ ‘न देवता झूठ बोलते हैं और न नारद ने कभी किसी से छल किया है।’ देवर्षि ने डाँट दिया– ‘अपनी अज्ञता-असावधानी को दोष दो।’ ‘देवकी की वह कन्या कह गयी…..।’ कंस की बात देवर्षि ने पूरी नहीं होने दी। उसी डाँटने के स्वर में वे बोलते गये। ‘कैसी देवकी की कन्या! वह यशोदा की पुत्री थी जो तुम्हारे हाथ से छूटकर आकाश में अष्टभुजा देवी बन गयी।’ ‘यशोदा की पुत्री? नन्दात्मजा?’ कंस तो मुख फाड़े देखता ही रह गया देवर्षि को दो क्षण। ‘सच तो कहते हैं ये। देवकी की पुत्री होती तो माता का सम्मानपूर्वक नाम लेती। उसने तो कहा था– ‘दीना देवकी को व्यर्थ कष्ट मत दे!’ कंस को पूरे वाक्य उस देवी के ज्यों के त्यों स्मरण हैं। ‘तब देवकी के अष्टम गर्भ का पुत्र? कंस ने कुछ घबराये स्वर में पूछा। ‘वह नन्दराय के यहाँ बढ़ रहा है अपने बड़े भाई रोहिणी पुत्र बलराम के साथ।’ नारद जी ने बतलाया– ‘उत्पन्न होते ही उसे वसुदेव यमुना पार करके गोकुल पहुँचा आये थे और यशोदा की कन्या को ले आये थे। तुम्हारे प्रसिद्ध शूरों को उन दोनों भाइयों ने मार दिया और तुम यह सीधी बात भी नहीं समझ सके।' ‘मैं अभी मार दूँगा वसुदेव और देवकी को भी।’ कंस ने पैर पटका। खड्ग खींच लिया कोश से और मुड़ा वेग से चलने को। ‘मार दोगे? मार देने का प्रयत्न कर देखो।’ देवर्षि खुलकर हँसे। उनके इस प्रकार की हास्यध्वनि से चौंककर कंस ने मुड़कर उनकी ओर घूरकर देखा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज