भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कुटिल मंत्रणा
मन्त्रणा-कक्ष में कंस अपने सिंहासन पर गम्भीर बैठा था। मन्त्री आकर अपने महाराज को अभिवादन करके अपने निश्चित आसनों पर बैठते गये। सब समझ गये कि बात कुछ गम्भीर है; क्योंकि कंस किसी से बोला नहीं। जब सब मन्त्री आ गये तब कंस के संकेत पर मन्त्रणा-कक्ष का द्वार बन्द कर दिया गया। ‘रात्रि में जो कुछ हुआ है, उसे आप सबको सुना देने के लिए मैंने बुलवाया है।’ कंस ने रात्रि की पूरी घटना सुना दी। ‘मैंने देवकी-वसुदेव को उनके भवन भेज दिया है। उन्हें अथवा यादव प्रमुखों को जो बाहर चले गये हैं–लौटें तो अब कोई उत्पीड़ित न करे।’ ‘आपने उचित किया।’ कंस के मन्त्री अपने महाराज की स्तुति करना भली प्रकार जानते थे। उनको पता था कि महाराज विरोध सुनना कभी नहीं चाहते। ‘उस कन्या की बात कुछ बहुत महत्वपूर्ण नहीं है।’ महामन्त्री पीठ बोले– ‘उसने यही तो कहा है कि आपका शत्रु कहीं प्रकट हो चुका। वह आज, कल या अधिक से अधिक परसों प्रकट हुआ होगा। हम नगरों, ग्रामों, व्रजों में ढूँढ़-ढूँढ़कर दस दिन और उससे छोटे सद्योजात शिशुओं तक को मार देंगे।’ ‘यह काम तो मैं अकेली कर डालूंगी।’ पूतना बोल उठी– ‘भाई, आप चिन्ता मत करो। यह तुम्हारी बहिन इस काम के लिए पर्याप्त है।’ ‘देवता शान्ति-काल में ही शूर बने रहते हैं और बहुत बड़बड़ाते हैं। युद्ध सम्मुख आने पर तो बस भागते ही दीखते हैं वे।’ प्रलम्ब ठठाकर हंसा– ‘आपको अपनी अमरावती विजय तो स्मरण ही होगी। बहुत से भाग गये थे। कुछ ने अस्त्र-शस्त्र फेंक दिये, शिखा और कच्छ खोलकर भयभीत प्राण-भिक्षा माँगने लगे थे और आपने उनको दया करके छोड़ दिया था।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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