भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 68

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय -1
अर्जुन की दुविधा और विषाद

                   
13.ततः शखश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्॥

उसके बाद शंख, भेरियां, ढोल, नगाड़े और सिगी बाजे एकाएक बज उठे और उनके कारण बड़े जोर का शोर होने लगा।

14.ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंख प्रदध्मतुः॥

तब अपने विशाल रथ में, जिसमें सफेद घोड़े जुते हुए थे, बैठे हुए कृष्ण और अर्जुन ने अपने दिव्य शंख बजाए। सारे हिन्दू और बौद्ध साहित्य में रथ मानसिक और शारीरिक वाहन का प्रतीक है। घोडे़ इन्द्रियाँ हैं। रासें उन इन्द्रियों का नियन्त्रण हैं, परन्तु सारथी, पथ-प्रदर्शक, भावना या वास्तविक आत्मा है। सारथी कृष्ण हमारे अन्दर विद्यमान आत्मा है।[1]

15.पांचजन्यं हषीकेशो देवदत्तं धनज्जयः।
पौण्डं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः॥

कृष्ण ने अपना पांचजन्य और अर्जुन ने अपना देवदत्त शंख बजाया और भयंकर कार्य करने वाले और बहुत खाने वाले भीम ने अपना महान् शंख पौण्ड्र बजाया। इससे युद्ध की तैयारी सूचित होती है।

16.अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च सातयकिश्चापराजितः॥

कुन्ती के पुत्र राजा युधिष्ठिर[2] ने अपना अनन्तविजय शंख बजाया और नकुल तथा सहदेव ने अपने सुघोष और मणिपुष्पक नाम के शंख बजाए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तुलना कीजिए: कठोपनिषद 3,3 साथ ही देखिए प्लेटो, लौज, 898 सी, मिलिन्दपअह, 26-8
  2. युधिष्ठिर पाण्डु के पांच पुत्रों में सबसे बड़ा है। नकुल पाण्डु के पुत्रों में चैथा है और सहदेह उनमें सबसे छोटा है।

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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