भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
13.वास्तविक लक्ष्य[1]
गीता उस आत्मिक जीवन की एकता पर बल देती है, जिसे दार्शनिक ज्ञान, भक्तिपूर्ण प्रेम या परिश्रम पूर्ण कर्म के रूप में नहीं बांटा जा सकता। कर्म, ज्ञान और भक्ति एक-दूसरे के पूरक हैं, तब भी जबकि हम लक्ष्य की खोज कर रहे होते हैं और लक्ष्य को प्राप्त कर लेने के बाद भी। यद्यपिह म एक ही पद्धति पर नहीं चल रहे होते, फिर भी जिस वस्तु की हम खोज कर रहे होते हैं, वह एक ही है। हम पर्वत के शिखर पर भले ही अलग-अलग मार्गों से चढें, परन्तु चोटी पर से दिखाई पड़ने वाला दृश्य सबके लिए एक जैसा होगा। ज्ञान की एक सशरीर व्यक्ति के रूप में कल्पना की गई है, जिसका शरीर जो जानकारी है और जिसका हृदय प्रेम है। योग, जिसकी विभिन्न अवस्थाएं ज्ञान और ध्यान, प्रेम और सेवा हैं, अन्धकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमरता की ओर ले जाने वाला प्राचीन मार्ग है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पूर्णता का लक्ष्य सर्वोच्च को (3,19), मुक्ति को (3,31;4,15) शाश्वत स्थिति को (18,56) उस मार्ग को जिससे कोई वापस नहीं लौटता (5,17)पूर्णता को (12,10) परम शान्ति को (4,39) परमात्मा में प्रवेश को (4,9,10 और 24), परमात्मा के साथ संयोग को (6,28), ब्रह्म में विश्राम को (2,72), ब्रह्मभाव की प्राप्ति को (14,26) और ब्रह्म में रूपान्तरण को (5,24) बताया गया है।
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