भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 53

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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12.कर्ममार्ग

अर्जुन शान्तिवादी रूख अपनाता है और सत्य और न्याय की रक्षा के लिए होन वाले युद्ध में भाग लेने से इनकार करता है। वह सारी परिस्थिति को मानवीय दृष्टिकोण से देखता है और चरम अहिंसा का प्रतिनिधि बना जाता है। अन्त में वह कहता हैः “इससे भला तो मैं यह समझता हूँ कि यदि मेरे स्वजन चोट करें, तो मैं उसका निःशस्त्र होकर सामना करूं, और अपनी छाती खोल दूँ उनके तीरों और बर्छों के सामने, बजाय इसके कि चोट के बदले चोट करूं।”[1] अर्जुन यह प्रश्न नहीं उठाता कि युद्ध उचित है या अनुचित। वह अनेक युद्धों में लड़ चुका है और अनेक शत्रुओं का सामना कर चुका है। वह युद्ध और उसकी भयंकरता के विरुद्ध इसलिए, क्योंकि उसे अपने मित्रों और सम्बन्धियों (स्वजनम्) को मारना पड़ेगा।[2] यह हिंसा या अहिंसा का प्रश्न नहीं है, अपितु अपने उन मित्रों के विरुद्ध हिंसा के प्रयेाग का प्रश्न है, जो अब शत्रु बन गए हैं। युद्ध के प्रति उसकी हिचक आध्यात्मिक विकास या सत्त्व गुुण की प्रधानता का परिणाम नहीं है, अपितु अज्ञान और वासना की उपज है।[3] अर्जुन इस बात को स्वीकार करता है कि वह दुर्बलता और अज्ञान के वशीभूत हो गया है।[4] गीता हमारे सम्मुख जो आदर्श उपस्थित करती है, वह अहिंसा का है; और यह बात सातवें अध्याय में मन, वचन और कर्म की पूर्ण दशा के, और बारहवें अध्याय में भक्त के मन की दशा के वर्णन से स्पष्ट हो जाती है।

कृष्ण अर्जुन को आवेश या दुर्भावना के बिना, राग या द्वेष के बिना युद्ध करने को कहता है और यदि हम अपने मन को ऐसी स्थिति में ले जा सकें, तो हिंसा असम्भव हो जाती है। जो अन्याय है, उसके विरुद्ध हमें लड़ना ही चाहिए। परन्तु यदि हम घृणा को अपने ऊपर हावी हो जाने दें, तो हमारी पराजय सुनिश्चित है। परम शान्ति या भगवान् में लीनता की दशा में लोगों को मार पाना असम्भव है। युद्ध को एक निदर्शन के रूप में लिया गया है। हो सकता है कि कभी हमें विवश होकर कष्टदायाक कार्य करना पड़े; परन्तु वह ऐसे ढंग से किया जाना चाहिए कि उससे एक पृथक् ‘अहं’ की भावना पनपने न पाए। कृष्ण अर्जुन को बताता है कि मनुष्य अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए भी पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। यदि कर्म को निष्ठा के साथ और सच्चे हृदय से, उसके फल की इच्छा रखे बिना किया जए तो वह पूर्णता की ओर ले जाता है। हमारे कर्म हमारे स्वभाव के परिणाम होने चाहिए। अर्जुन है तो क्षत्रिय जाति का गृहस्थ, परन्तु वह बातें संन्यासी की-सी करता है; इसलिए नहीं कि वह बिलकुल वैराग्य और मानवता के प्रति प्रेम की स्थिति तक ऊपर उठ गया है, अपितु इसलिए कि वह एक मिथ्या करुणा के वशीभूत हो गया है। प्रत्येक व्यक्ति को उस स्थान से ऊपर की ओर उठना होगा, जहाँ कि वह खड़ा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 46 ऐडविन आर्नल्ड कृत अंग्रेज़ी अनुवाद।
  2. 1, 31; 1, 27; 1, 37; 1, 45
  3. 18, 7, 8
  4. 2, 7

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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