भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 46

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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11.भक्तिमार्ग

फिर, “सत्य अद्वैत है; परन्तु द्वैत पूजा के लिए है; और इस प्रकार यह पूजा मुक्ति की अपेक्षा सौगुनी महान् है।”[1]गीता में भक्ति बौद्धिक प्रेम नहीं है, जो कि अपेेक्षाकृत अधिक चिन्तनात्मक और मननात्मक होता है। यह ज्ञान के आधार पर टिकी है, परन्तु स्वयं ज्ञान नहीं है। इसमें योग-पद्धति का कोई निर्देश निहित नहीं है और न भगवान् का आनुमानिक ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा ही निहित है। शाण्डिल्य ने तर्क प्रस्तुत करते हुए कहा कि यह भक्ति हमें ज्ञान के बिना भी आत्मिक शान्ति प्रदान करती है, जैसे गोपियों को प्राप्त हुई थी।[2] भक्त में एक अतिशय विनय की भावना होती है। अपने आदर्श भगवान् की उपस्थिति में वह अपने-आपको कुछ भी नहीं समझता। परमात्मा विनम्रता से, जो कि आत्मा का पूर्ण आत्मसमर्पण है, प्रेम करता है।[3]साधारणतया भक्ति के साथ जुड़े हुए विशेष गुण, प्रेम और उपासना, दया और कोमलता पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अधिक पाए जाते हैं। क्योंकि भक्ति में विनय, आज्ञापलन, सेवा-परायणता, करुणा और सदय प्रेम पर ज़ोर दिया गया है और निष्क्रियता अनुभव करना चाहता है, इसलिए यह कहा जाता है कि भक्ति अपेक्षाकृत स्त्री-स्वभाव की वस्तु अधिक है। स्त्रियां आशा करती हैं, कष्ट सहती हैं, चाहती हैं और प्राप्त करती हैं। वे करुणा, दया और शान्ति के लिए लालायित रहती हैं। स्त्रीत्व सब प्राणियों में है। भागवत में यह बताया गया है कि कन्याओं ने सर्वोच्च देवी कात्यायनी से प्रार्थना की कि वे उन्हे पति के रूप में कृष्ण को प्रदान करें।[4] जब स्त्रियां अपने अधिकतम सच्चे रूप में सामने आती हैं, तब से सब-कुछ दे डालती हैं और बदले में कुछ भी नही मांगतीं। वे प्रेम करना और प्रेम पाना चाहती हैं। राधा प्रेम मय आत्मा की प्रतीक है। भगवान् के साथ सम्बन्ध में भक्त लोग स्त्रियों की भाँति अधिक होते हैं। “सर्वोच्च भगवान् ही एकमात्र पुरुष है; ब्रह्मा से लेकर नीचे तक सब प्राणी स्त्रियों की भाँति हैं (जो उसके साथ मिलने के लिए लालायित हैं)।”[5] जब आत्मा अपने-आप को परमात्मा के सम्मुख समर्पित कर देती है, तब परमात्मा हमारे ज्ञान व हमारी त्रुटियों को अपना लेता है और वह अपर्याप्तता के सब रूपों को परे फेंक देता है और सब वस्तुओं को अपने असीम प्रकाश और सार्वभौम अच्छाई की विशुद्धता में रूपान्तरित कर देता है। भक्ति केवल ‘एकाकी की एकाकी की ओर उड़ान’, आत्मा का संसार से विराग और परमात्मा से अनुराग नहीं है, अपितु उस दिव्य भगवान् के प्रति सक्रिय प्रेम है, जो इस संसार का उद्धार करने के लिए इस संसार में प्रवेश करता है।
यह दृष्टिकोण, कि हम स्वयं अपने प्रयत्नों द्वारा भगवान् की दया प्राप्त करने में समर्थ नहीं हो सकते, एक तीव्र भावनामय धार्मिकता को जन्म देता है। जहाँ भक्ति में श्रद्धा और प्रेम की आवश्यकता होती है, वहाँ प्रपत्ति में हम केवल अपने-आप को परमात्मा के प्रति समर्पित कर देेते है; हम अपने-आप को उसके हाथों में सौंप देते हैं और यह निर्णय स्वयं उसके लिए छोड़ देते हैं कि वह हमारे लिए जो ठीक समझे, हमारे साथ करे। इसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि एक विश्वास की विनीत और प्रत्यक्ष भावना के साथ आत्मसमर्पण का सरल और तपस्यापूर्ण विशुद्ध सम्बन्ध स्थापित किया जाए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पारमार्थिकमद्वैतं द्वैतं भजनहेतवे। तादृशी यदि भक्तिः स्यात्, सा तु मुक्तिशताधिका॥

  2. अतएव तदभावाद् वल्लवीनाम्।
  3. दैन्यप्रियतवम्। नारदसूत्र, 27
  4. कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि। नन्दगोपसुतं देवि पति में कुरु त ेनमः॥ 10, 22, 4

  5. स एव वासुदेवोऽसौ साक्षात्पुरुष उच्यते। स्त्रीप्रायमितरत सर्व जगद्ब्रह्मापुरस्सयम्॥

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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