भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 45

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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11.भक्तिमार्ग

भक्ति शब्द ‘भज्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है--सेवा करना; और भक्ति शब्द का अर्थ है--भगवान् की सेवा। यह परमात्मा के प्रति प्रेमपूर्ण अनुराग है। नारद ने भक्ति की परिभाषा देेते हुए इसे परमात्मा के प्रति उत्कट प्रेम बताया है।[1] शाण्डिल्य के मत से यह परमात्मा सर्वोच्च अभिलाषा है[2], जो केवल इस अभिलाषा के लिए ही है (अर्थात् इस अभिलाषा का और कोई प्रयोजन नहीं है)।[3] यह भगवान् की करुणा के विश्वासपूर्ण आत्मसाक्षात्करण के प्रति आत्मसमर्पण है। यह योगसूत्र का ईश्वरप्रणिधान है, जो भोज के मतानुसार, “एक ऐसा प्रेम है, जिसमें इन्द्रियों के आनन्द इत्यादि परिणामों की अपेक्षा किए बिना सब कार्य गुरुओं के गुरु को समर्पित कर दिए जाते हैं।”[4] यह एक प्रचुर अनुभव है, जो सब लालसाओं को समाप्त कर देता है और हृदय को परमात्मा के्र प्रेम से भर देता है।[5] भक्ति-मार्ग के समर्थकों की लोकोत्तर मुक्ति में उतनी रुचि नहीं है, जितनी परमात्मा की अटल इच्छा के प्रति पूर्ण वशवर्तिता में मानवीय आत्मा परमात्मा की शक्ति, ज्ञान और अच्छाई के चिन्तन द्वारा, भक्तिपूर्ण हृदय से उसके निरन्तर स्मरण द्वारा, दूसरे लोगों के साथ उसके गुणों के सम्बन्ध में चर्चा करने के द्वारा, अपने साथियों के साथ मिलकर उसके गुणों का गान करने के द्वारा और सब कार्यों को उसकी सेवा समझकर करने के द्वारा भगवान् के निकट पहुँच जाती है।[6] भक्त अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को भगवान् की ओर प्रेरित करता है। प्रेम धर्म का सार है। यह उपासक और उपास्य के मध्य द्वैत को अंगीकार करता है। यदि अन्तर्यामितावाद के दर्शन की इस प्रकार व्याख्या की जाए कि वह मनुष्य की अपने प्राणित्व की भावना या भगवान् की लोकातीतता की भावना को नष्ट कर दे, तो उसमें भक्ति और पूजा के लिए कोई स्थान न होगा। प्राणी और स्रष्टा के मध्य भेद भक्ति-धर्म का सत्त्वात्मक आधार है। भगवद्गीता में सनातन भगवान् को दार्शनिक अनुमान के परमात्मा के रूप में उतना नहीं देखा गया, जिता कि उस करुणामय भगवान् के रूप में, जिसे हृदय और आत्मा चहते हैं और खोजते हैं; जो व्यक्तिक विश्वास और प्रेम, श्रद्धा और निष्ठापूर्ण आत्मसमर्पण की भवना को जगाता है। “ज्ञान का उदय होने से पहले द्वैतता भ्रामक है; पर जब हमारी बुद्धि ज्ञान से आलोकित हो जाती है, तब हम अनुभव करते है कि द्वैत तो अद्वैत से भी अधिक सुन्दर है और द्वैत की कल्पना ही इसलिए की गई है कि पूजा की जा सके।”[7]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. परम प्रेम-रूपा।
  2. सा परानुरक्तिरीश्वरे। 1, 1, 2
  3. निर्हेतका। भागवत से तुलना कीजिएः अहेतुकव्यवहिता या भक्तिः पुरुषोत्तमे। साथ ही देखिए, भगवद्गीता, 12, 5; 9, 17-18 चैतन्य से तुलना कीजिएः ”हे भगवन् मैं धन या पजिरन या सुन्दरियों या कवित्व की शक्ति नहीं चाहता; मैं तो जनम-जन्मान्तर में भगवान् की अहेतुक भक्ति की ही कामना करता हूँ।” न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिहैतु की त्वयि॥ --शिक्षाष्टक, 4
  4. 1, 23। यह महावस्तु की बुद्धानुस्मृति है।
  5. नारद से तुलना कीजिएः भक्ति सूत्र 54; गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानम्, अविच्छिन्नम्, सूक्ष्मतरम्, अनुभवरूपम्।
  6. नारदसूत्र, 16-18। भागवत में भक्ति की नौ दशाओं का वर्णन किया गया हैःश्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥ फिरः “मैं न तो स्वर्ग में रहता हूँ अैर न योगियों के हृदय में; मैं तो वहीं निवास करता हूँ जहाँ कहीं मेरे भक्त मेरे गुणों का गान करते हैं।” नाहं वसामि वैकुण्ठे, योगिनां हृदये न च। मद्भक्ता यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद॥
  7. द्वैतं मोहाय बोधात् प्राग् जाते बोधे मनीषया। भक्त्यर्थ कल्पितं द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम्॥

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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