भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 42

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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10.ज्ञानमार्ग

इस निःशब्दता में, जो पार्थिव संघर्षों के बाद आत्मा का विश्राम है, अन्तर्दृष्टि उत्पन्न होती है और मनुष्य वह बन जाता है, जो कि वह वस्तुतः है।हमारी चेतना जब शरीर के साथ जुड़ जाती है, तब वह इन्द्रियों द्वारा बाह्य संसार के नियन्त्रण के कार्य को पूरा करने के लिए बहिर्मुखी हो जाती है; अपनी बहिर्मुखी क्रियाओं में यह इन्द्रिय-ग्राह्म वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिए धारणाओं का उपयोग करती है; अन्तर्मुखी होने पर यह साधारणतया आत्म का अनुमान-सिद्ध ज्ञान उन कार्यों द्वारा प्राप्त करती है, जो इस अर्थ में तुरन्त जान लिए जाते हैं कि जानी गई वस्तुएं स्वयं ज्ञान के सिवाय किसी अन्य माध्यम द्वारा नहीं जानी जाती। इस सबसे हमें यह पता चलता है कि आत्म अपने मूल स्वरूप में क्या है। हम यह तो जान जाते हैं कि आत्म किस तत्त्व का बना है, परन्तु स्वयं आत्म को नहीं जान पाते। आत्म का अस्तित्वात्मक अनुभव प्राप्त करने के लिए हमें वस्तुओं की उस बाह्य और आन्तरिक विविधता से मुक्त होना होगा, जो आत्म के सार के प्रत्यक्ष या अन्तःस्फुरणात्मक दर्शन में बाधक है और उसे रोकती है।
साधारणतया बाह्य और आन्तरिक प्रातिभासिक जगत् ही रंगमंच को घेरे रहता है और आत्म अपने सार के रूप में पहचाना नहीं जाता। हम अपने-आप को मनोवैज्ञानिक रूप से जितना अस्पष्ट करते जाते है अर्थात् अन्तर्निरीक्षण या मनन द्वारा अपने-आप को अस्पष्ट करते जाते हैं, उतना ही अधिक हम आत्म की प्रातिभासिक अभिव्यक्तियों के सम्पर्क में आते जाते हैं। यदि हमें अपने अन्दर विद्यमान सर्वोच्च आत्म को देखना हो, तो हमें एक भिन्न प्रकार की साधना अपनानी चाहिए। हमें दृश्यमान वस्तुओं को एक ओर हटा देना चाहिए; हमें अपनी प्रकृति के रूझान के विरुद्ध चलना चाहिए; अपने-आप को नग्न-रूप में देखना चाहिए, प्रतीयमान अहंकार से बचना चाहिए और विशुद्ध कर्तात्मकता, परम आत्म के गम्भीर गर्त तक पहुँचना चाहिए।
भगवद्गीता में हमें बताया गया है कि किस प्रकार साधक उपभोग और संयम की शारीरिक अतियों से दूर रहता है; वह किसी ऐसे स्थान पर जाता है, जहाँ बाहर की वस्तुओं के कारण ध्यान न बंटे। वह कोई सुविधाजनक आसन लगाकर बैठता है; अपने श्वास को नियमित करता है; अपने मन को किसी एक बिन्दु पर एकाग्र करता है और इस प्रकार समस्‍वरतायुक्त (युक्त) बन जाता है और कर्म के फल की सब इच्छाओं से अनासक्त हो जाता है। जब वह इस एकता को प्राप्त कर लेता है, तब वह अपने सब साथी-प्राणियों के साथ एक पूर्ण सहृदयता अनुभव करने लगता है। इसलिए नहीं कि ऐसा करना उसका कर्त्तव्य है, अपितु इसलिए कि उसे उन सबके प्रति सहानुभूति और प्रेम का अनुभव होने लगता है। हमारे सम्मुख गौतम बुद्ध का उदाहरण है, जो सबसे महान् ज्ञानी या ऋषि था और जिसके मानवता के प्रति प्रेम ने उसे चालीस वर्ष तक मानव-जाति की सेवा में लगाए रखा। सत्य को जानने का अर्थ है—अपने हृदय को भगवान् तक ऊपर उठाना और उसकी स्तुति करना। ज्ञानी ही भक्त भी होता है और भक्तों में सर्वश्रेष्ठ होता है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 6, 17

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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