भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 34

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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7.व्यक्तिक आत्मा

जीवन ताश के एक खेल की तरह है। हमने खेल का आविष्कार नहीं किया और न ताश के पत्तों के नमूने ही हमने बनाए हैं। हमने इस खेल के नियम भी खुद नहीं बनाए और न हम ताश के पत्तों के बंटबारे पर ही नियन्त्रण रख सकते हैं। पत्ते हमें बांट दिए जाते हैं, चाहे वे अच्छे हों या बुरे। इस सीमा तक नियतिवाद का शासन है। परन्तु हम खेल को बढ़िया ढंग से या खराब ढंग से खेल सकते हैं। हो सकता है कि एक कुशल खिलाड़ी के पास बहुत खराब पत्ते आए हों और फिर भी वह खेल में जीत जाए। यह भी सभ्भव है कि एक खराब खिलाड़ी के पास अच्छे पत्ते आए हों और फिर भी वह खेल का नाश करके रख दे। हमारा जीवन परवशता और स्वतन्त्रता, दैवयोग और चुनाव का मिश्रण है। अपने चुनाव का समुचित रूप से प्रयोग करते हुए हम धीरे-धीरे सब तत्त्वों पर नियन्त्रण कर सकते हैं और प्रकृति के नियतिवाद को बिलकुल समाप्त कर सकते हैं। जहाँ भौतिक तत्त्व की गतियां, वनस्पतियों की वृद्धि और पशुओं के कार्य कहीं अधिक पूर्णतया नियन्त्रित रहते हैं, वहाँ दूसरी ओर मनुष्य में समझ है, जो उसे संसार के कार्य में विवेकपूर्वक सहयोग करने में समर्थ बनाती है।

वह किन्हीं भी कार्यों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है; उसके लिए अपनी सहमति दे सकता है या सहमत होने से इनकार कर सकता है। यदि वह अपने बुद्धिमत्तापूर्ण संकल्प का प्रयोग नहीं करता, तो वह अपनी मनुष्यता के प्रतिकूल आचरण कर रहा है। यदि वह अपने मनोवेगों और वासनाओं के अनुसार अन्धा होकर कार्य करता जाता है, तो वह मनुष्य की अपेक्षा पशु की भाँति अधिक आचरण कर रहा होता है। मनुष्य होने के कारण वह अपने कार्यों को उचित सिद्ध करता है।

हमारे कुछ कार्य केवल देखने में ही हमारे होते हैं। उनमें स्वतःप्रवृत्ति की भावना केवल दिखावटी होती है। कई बार हम उन प्रेरणाओं के अनुसार कार्य करते होते हैं, जो सम्मोहन की दशा में हमें दी जाती हैं। भले ही हम यह समझे कि हम उन कार्यों को सोच-समझकर, अनुभव करते हुए और अपनी इच्छा से कर रहे हैं, परन्तु सम्भव है, हम उस दशा में भी उन प्रेरणाओं को ही अभिव्यक्त कर रहे हों, जो हमें सम्मोहन की दशा में दी गई थी। जो बात सम्मोहन की स्थिति के विषय में सत्य है, वही हमारे उन अनेक कार्यो के विषय में भी सत्य है, जो देखने में भले ही स्वतःप्रवृत्त जान पड़ते हों, परन्तु वस्तुतः वैसे नहीं होते। हम बिलकुल नई सम्मतियों को दुहरा देते हैं और यह समझते हैं कि वे हमारे अपने चिन्तन का परिणाम हैं। स्वतःप्रवृत्त कर्म कोई ऐसी बाध्यतामूलक गतिविधि नहीं है, जिसकी ओर व्यक्ति को उसके अपने एकाकीपन या असहायता द्वारा धकेल दिया गया हो। यह तो सम्पूर्ण आत्म का स्वतन्त्र कर्म है। व्यक्ति को स्वतःप्रवृत्त या सृजनात्मक गतिविधि के सम्भव बनाने के लिए अपने प्रति पारदर्शक बन जाना चाहिए। उसके अन्दर विद्यमान विभिन्न तत्त्वों का एक आधारभूत समेकन हो जाना चाहिए।

यह व्यक्ति का कर्त्तव्‍य है कि वह अपने रजस और तमस पर अपनी सत्त्व प्रकृति द्वारा, जो वस्तुओं को सच्चाई और कर्म के उचित विधान की खोज में रहती है, नियन्त्रण करे। जब हम अपनी सत्त्व प्रकृति के प्रभाव में रहकर कर्म कर रहे होते हैं, तब भी हम पूर्णतया स्वतन्त्र नहीं होते। सत्त्व-गुण भी हमें उतना ही बांधता है, जितना कि रजस और तमस। केवल इतना अन्तर है कि तब हमारी सत्य और पुण्य की कामनाएं अपेक्षाकृत उच्चतर होती हैं। ‘अहं’ की भावना तब भी कार्य कर रही होती है। हमें अपने ‘अहं’ से ऊपर उठना होगा और बढ़ते हुए उस सर्वोच्च आत्मा तक पहुँचना होगा, जिसकी कि अहं भी एक अभिव्यक्ति है। जब हम अपनी व्यक्तिगत सत्ता को भगवान के साथ एक कर देते हैं, तब हम त्रिगुणात्मक प्रकृति से ऊपर उठ जाते हैं। हम त्रिगुणातीत[1] हो जाते हैं और संसार के बन्धन से मुक्त हो जाते है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 14, 21

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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