भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
7.व्यक्तिक आत्मा
समूह के साथ मिले रहने की सहज प्रवृत्तिज भावना से उसे जो सुरक्षा अनुभव होती है, वह जाती रहती है और वह सुरक्षा की भावना फिर एक ऊँचे स्तर पर पहुँचकर अपने व्यक्तित्व को बिना गंवाए दुबारा प्राप्त की जानी है। अपने आत्म के संघटन द्वारा संसार के साथ उसकी एकता एक सहज प्रेम और निःस्वार्थ कार्य द्वारा उपलब्ध की जानी है। प्रारम्भिक दृश्य में अर्जुन प्रकृति के संसार और समाज के सम्मुख खड़ा है और वह अपने-आप को बिल्कुल अकेला अनुभव करता है। वह सामाजिक प्रमापों के सम्मुख झुककर आन्तरिक सुरक्षा प्राप्त करना नहीं चाहता। जब तक वह अपने-आप को एक क्षत्रिय के रूप में देखता है, जिसका काम लड़ना है, जब तक वह अपनी पदस्थिति और उसके कर्त्तव्यों से जकड़ा हुआ है, तब तक उसे अपने वैयक्तिक कर्म की पूरी सम्भावनाओं का पता नहीं चलता, हममें से अधिकांश लोग सामाजिक जगत में अपने विशिष्ट स्थान को प्राप्त करके अपने जीवन को एक अर्थ प्रदान करते हैं और एक सुरक्षा की अनुभूति, एक आत्मीयता की भावना प्राप्त करते हैं। साधारणतया सीमाओं के अन्दर रहते हुए हम अपने जीवन की अभिव्यक्ति के लिए अवसर पा लेते हैं और सामाजिक दिनचर्या बन्धन अनुभव नहीं होती। व्यक्तिक आत्मा ईश्वर[1] का एक अंश है; भगवान का एक काल्पनिक नहीं, अपितु वास्तविक रूप, परमात्मा का एक सीमित व्यक्त रूप। आत्मा, जो कि परमेश्वर से निकली है, भगवान से निकास के रूप में उतनी नहीं है, जितनी कि उसके अंश के रूप में। वह अपना आदर्श उसी श्रेष्ठ मूल तत्त्व से प्राप्त करती है, जो एक पिता के रूप में है, जिसने उसे अस्तित्व प्रदान किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1. 15, 7। आत्मा के इस दिव्य तत्त्व को कई नाम दिए गए हैं—शीर्ष, भूमि, अन्ध गर्त, चिनगारी, अग्नि, आन्तरिक, ज्योति।
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