भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 27

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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6.संसार की स्थिति और माया की धारणा

उसके अन्दर ब्रह्म की अनिवार्यता भी है और साथ ही अस्तित्वमान होने का विकार या परिवर्तन भी है।[1]माया वह शक्ति है, जो उसे परिवर्तनशील प्रकृति को उत्पन्न करने में समर्थ बनाती है। यह ईश्वर की शक्ति या ऊर्जा या आत्मविभूति है; अपने-आप को अस्तित्वमान बनाने की शक्ति। इस अर्थ में ईश्वर और माया परस्पराश्रित हैं, और आदिहीन हैं।[2] गीता में भगवान की इस शक्ति को माया कहा गया है।[3](3) क्योंकि परमात्मा अपने अस्तित्व के दो तत्त्वों, प्रकृति और पुरुष, भौतिक तत्त्व और चेतना द्वारा संसार को उत्पन्न कर सकता है, इसलिए वे दोनों तत्त्व भी परमात्मा की (उच्चतर और निम्नतर) माया कहे जाते हैं। [4](4) क्रमशः माया का अर्थ निम्नतर प्रकृति हो जाता है, क्योंकि पुरुष को तो वह बीज बताया गया है, जिसे भगवान संसार की सृष्टि के लिए प्रकृति के गर्भ में डालता है। (5) क्योंकि यह व्यक्त जगत वास्तविकता को मर्त्‍य प्राणियों की दृष्टि से छिपाता है, इसलिए इसे भी भ्रामक ढंग का बताया गया है।[5]यह संसार कोई भ्रान्ति नहीं है, यद्यपि इसे परमात्मा से असम्बद्ध केवल प्रकृति का यान्त्रिक निर्धारण समझ लेने के कारण हम इसके दैवीय तत्त्व को समझने में असमर्थ रहते हैं। तब यह भ्रान्ति का कारण बन जाता है। दैवीय माया अविद्या माया बन जाती है। परन्तु यह केवल हम मर्त्‍यों के लिए, जो सत्य तक नहीं पहुँच सकते, अविद्या माया है; परन्तु परमात्मा के लिए, जो सब-कुछ जानता है और इसका नियन्त्रण करता है, यह विद्या माया है। ऐसा लगता है कि परमात्मा माया के एक विशाल आवरण में लिपटा हुआ है।[6] (6) क्योंकि यह संसार परमात्मा का एक कार्य-मात्र है और परमात्मा इसका कारण है और क्योंकि सभी जगह कारण कार्य की अपेक्षा अधिक वास्तविक होता है, इसलिए यह संसार, जो कि कार्य-रूप है, कारण-रूप परमात्मा की अपेक्षा कम वास्तविक कहा जाता है। संसार की यह आपेक्षिक अवास्तविकता अस्तित्वमान होने की प्रक्रिया की आत्मविरोधी प्रवृत्ति द्वारा पुष्ट हो जाती है। अनुभव के जगत में विरोधी वस्तुओं में संघर्ष चलता रहता है और वास्तविक (ब्रह्म) सब विरोधों से ऊपर है।[7]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 9, 19
  2. देखिए शाण्डिल्य सूत्र, 2, 13 और 15; श्वेताश्वतर उपनिषद, 4, 10
  3. 18, 61; 4, 6
  4. 4, 16
  5. 7, 25 और 14
  6. जो माया अविद्या को उत्पन्न नहीं करती, वह सात्त्विकी माया कहलाती है। जब यह दूषित हो जाती है, तब यह अज्ञान या अविद्या को जन्म देती है। ब्रह्म जब पहले प्रकार की माया में प्रतिबिम्बित होता है, तब वह ईश्वर कहलाता है और जब वह पिछले प्रकार की माया में प्रतिफलित होता है, तो वह जीव या व्यक्तिक आत्मा कहलाता है। यह परवर्ती वेदान्त हैः देखिए पंचदशी, 1, 15-17, गीता इस दृष्टिकोण से परिचित नहीं है।
  7. 2, 45; 7, 28; 9, 33

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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