भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 241

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-18
निष्कर्ष संन्यास कर्म का ही नहीं, अपितु कर्म के फल का किया जाना चाहिए

   
14.अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्॥

कार्य का स्थान और इसी प्रकार कर्ता, विविध प्रकार के साधन, विविध प्रकार की चेष्टाएं और पांचवां भाग्य;’अधिष्ठान’ या कर्म का स्थान, इससे भौतिक शरीर की ओर संकेत है। कर्ता: करने वाला। शंकराचार्य के मतानुसार वह गोचर आत्मा है-उपाधिलक्षणो अविद्याकल्पितो भोक्ता- मनःशारीरिक आत्म, जो गलती से जीव को सच्ची आत्मा समझ लेता है। रामानुज की दृष्टि में यह वैयक्तिक आत्मा को सच्ची आत्मा समझ लेता है। रामानुज की दृष्टि में यह वैयक्तिक आत्मा जीवात्मा है; मध्व की दृष्टि से यह सर्वोच्च भगवान् विष्णु है। कर्ता कर्म के पांच कारणों में से एक है। सांक्ष्य-सिद्धान्त के अनुसार पुरुष या आत्मा केवल साक्षी है। यद्यपि, यदि बिलकुल ठीक-ठाक कहा जाए, तो आत्मा अकर्ता अर्थात् कर्म को न करने वाली है, फिर भी उसका साक्षी-रूप में रहना प्रकृति की गतिविधियां को प्रारम्भ कर देता है और इसलिए आत्मा को निर्धारक कारणों में सम्मिलित किया गया है।
चेष्टा: प्रयत्नः शरीर के अन्दर प्राण शक्तियों की क्रियाएं।दैवम्: भाग्यः यह उस अमानवीय तत्त्व का प्रतिनिधि है, जो मानवीय प्रयत्न में बाधा डालता है और उसका निपटारा करता है। यह वह बुद्धिमान् और सर्वदर्शी संकल्प है, जो संसार में क्रियाशील है। सब मानवीय क्रियाओं में एक ऐसा तत्त्व है, जिसकी कोई व्याख्या नहीं की जा सकती; जिसे संयाग, भवितव्यता, भाग्य या मनुष्य के अतीत जीवनों के कर्मों द्वारा संचित शक्ति कहा जाता है। यहाँ उसे दैव कहा गया है।[1] मनुष्य का काम समय के तालाब में एक कंकड़ छोड़ देना है और सम्भव है कि हम उससे उठने वाली लहरों को दूर किनारे तक पहुँचते न देख सकें। जो हमारे अपने हाथों की अपेक्षा उच्चतर हाथों में रखी हुई है। दैव या मानवोत्तर भाग्य एक सामान्य ब्रह्माण्डीय आवश्यकता है, जो उस सबका परिणाम है, जो कि अतीत में हो चुका है, और जो अलक्षित रहकर शासन करती है। यह अपने अगणित उद्देश्य के लिए व्यक्ति के अन्दर कार्य करती रहती है।दैव या भाग्य में विश्वास निष्क्रियता के लिए बहाना नहीं बनना चाहिए। मनुष्य एक संक्रमण की एक दशा है। उसे अपनी पाशविक आनुवंशिकता से ऊपर उठकर दैवीय आदर्श तक पहुँचने के अपने उद्देश्य का ज्ञान है। प्रकृति, आनुवंशिकता और परिवेश के दबाव को मनुष्य के संकल्प द्वारा जीता जा सकता है।

15.शरीरवांमनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पच्चैते तस्य हेतवः॥

मनुष्य अपने शरीर, वाणी या मन द्वारा जो भी कोई उचित या अनुचित कर्म करता है, उसमें ये पांच उपकरण अवश्य होते हैं।

16.तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्चति दुर्मतिः॥

ऐसी दशा में जो विकृत मन वाला मनुष्य अपनी अप्रशिक्षित बुद्धि के कारण अपने-आप को एकमात्र कर्ता समझता है, वह सच्ची बात को नहीं देख रहा होता।कर्ता पांच उपकरणों में से एक है और इस प्रकार जब वह कर्ता को ही एकमात्र कारण मान लेता है, त बवह एक तथ्य को गलत समझ रहा होता है।शंकराचार्य ने व्याख्या इस प्रकार की है, ’’विशुद्ध आत्मा को कर्ता समझता है।’’ यदि वह विशुद्ध आत्मा पर कर्तृव्य का आरोप करता है, तो वह तथ्य को गलत समझता है। सामान्यता जीव को कर्ता समझा जाता है, परन्तु वह मानीवय कर्म के मुख्य निर्धारकों में से, जो सबके सब प्रकृति की उपज है, केवल एक है। जब अहंकार को अहंकाररूप में पहचान लिया जाता है, तब हम उसके बन्धनकारी प्रभाव से मुक्त हो जाते हैं और हम विश्वात्मा के विशालतर ज्ञान में जीवन-यापन करते हैं; और उस आत्मदर्शन में सब कर्म प्रकृति की उपज हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तुलना कीजिए: पूर्वजन्मकृतं कर्म तद् दैवमिति कथ्यते।- हितोपदेश।

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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