भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 240

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-18
निष्कर्ष संन्यास कर्म का ही नहीं, अपितु कर्म के फल का किया जाना चाहिए

   
6.एतान्यपितु कर्माणि संग त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्ययानीति मे पार्थ निश्चितं मतयुत्तमम्॥

परन्तु इन कर्मों को भी आसक्ति को और फलों की इच्छा को त्यागकर ही करना चाहिए। हे पार्थ (अर्जुन) यह मेरा सुनिश्चित और अन्तिम मत है।गुरु सुनिश्चित रूप से कर्मयोग के अभ्यास के पक्ष में है। कर्मों का त्याग नहीं करना केवल उन कर्मों को स्वार्थपूर्ण आसक्ति और फलों की आशा के बिना करना है। मुक्ति बाह्य कर्म या अकर्म का विषय नहीं है; यह तो एक अकर्तृक दृष्टिकोण को अपनाना और अहंकार का आन्तरिक परित्याग है।शंकराचार्य के इस कथन का, कि यह बात ज्ञानियों के लिए, जो कि सब कर्मों का परित्याग कर देते हैं, नहीं कही गई (ज्ञाननिष्ठाः सर्वकर्मसंन्यासिनः), गीता के मूल पाठ द्वारा समर्थन नहीं होता। तुलना कीजिए, बुहदारण्यक उपनिषद्, 4, 4, 11। ’’वह ब्रह्म ही है, जिसे ब्राह्मण लोग वेदों के अध्ययन द्वारा और आसक्तिरहित होकर किए गए यज्ञ, दान, और तप द्वारा जानना चाहते हैं।’’

7.नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः॥

किसी भी नियत किए गए (करने योग्य) कर्म का त्याग उचित नहीं है। अज्ञान के कारण इस प्रकार के कर्म का त्याग तामसिक ढंग का त्याग कहलाता है।

8.दुःखीमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्यजेत्।
सं कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्॥

जो व्यक्ति कर्त्तव्य का त्याग इसलिए कर देता है कि उसे करने में कष्ट होता है, या उसमें शारीरिक दुःख का भय है, व राजसिक प्रकार का त्याग करता है और उसे त्याग का फल नहीं मिलता।

9.कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन।
संग त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः॥

परन्तु जो व्यक्ति नियत कर्तव्य को अपना करने योग्य कार्य मानकर करता रहता है और उसके प्रति सम्पूर्ण आसक्ति तथा फल को त्याग देता है, उसका त्याग सात्त्विक माना जाता है।करने योग्य कर्म वह है, जो विश्व के प्रयोजन के साथ समस्वर हो।

10.न द्वेष्टच्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः॥

उस बुद्धिमान् व्यक्ति को, जो त्याग करता है, जिसके संशय समाप्त हो गए हैं और जिसका स्वभाव सात्त्विक है, अप्रिय कर्म से कोई घृणा नहीं होती और प्रिय कर्म से कोई अनुराग नहीं होता ।

11.न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥

किसी भी देहधारी प्राणी के लिए कर्म का पूर्ण त्याग कर देना असम्भव है। परन्तु जो कर्म के फल को त्याग देता है, वही त्यागी कहलाता है।

12.अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्॥

जिन्होंने त्याग नहीं किया है, उन्हें मृत्यु के पश्चात् कर्म का तीन प्रकार का - प्रिय, अप्रिय और आश्रित (मिला-जुला) - फल मिलता है। परन्तु जिन्होंने त्याग कर दिया है, उन्हें कोई फल नहीं मिलता। शंकराचार्य अत्यागी कर्मयोगियों को मानते हैं और संन्यासी उनको मानते हैं, और संन्यासी उनको मानते हैं, जिन्होंने शरीर-धारण के लिए अनिवार्य के सिवाय बाकी सब कर्मों का त्याग कर दिया है।

कर्म प्रकृति का एक कार्य है

13.पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्॥

हे महाबाहु (अर्जुन), अब तू मुझसे सब कर्मों को करने के लिए आवश्यक इन पांच उपकरणों को समझ ले, जैसे कवे सांख्य-सिद्धान्त में बताए गए हैं।यहाँ सांख्य का अर्थ वेदान्त है। - शंकराचार्य।’कृतान्ते’ की व्याख्या ’कृतयुग के अन्त में’, इस प्रकार की गई है; अर्थात् उस रूप में, जैसा कि मूल सांख्य में बताया गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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